मंगलवार, 31 जनवरी 2017

     भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों के अपहरण की साजिश
                    मनोज ज्वाला
      “संस्कृत भाषा का आविष्कार ‘सेंट टामस’ ने भारत में ईसाइयत का प्रचार करने के लिए एक औजार के रूप में किया था और वेदों की उत्पत्ति सन १५० ईस्वी के बाद ईसा मसिह की शिक्षाओं से हुई , जिसे बाद में धूर्त ब्राह्मणों ने हथिया लिया ।” जी हां ! चौंकिए मत , आगे भी पढिये और पढते जाइए । भारत के प्राचीन शास्त्रों-ग्रन्थों का गुप-चुप,  शांतिपूर्वक अपहरण करने में लगे हुए पश्चिमी बौद्धिक-अपहर्ताओं का यह भी दावा है कि “ भारत का बहुसंख्यक समुदाय मूल रूप से ईसाई ही है, अर्थात ‘नूह’ के तीन पुत्रों में से दो की संततियों के अधीन रहने को अभिशप्त- ‘हैम’ के वंशजों का समुदाय है ; किन्तु भ्रष्ट और प्रदूषित होकर मूर्तिपूजक बन गया , तो ‘हिन्दू’ या ‘सनातनी’ कहा जाने लगा ।”  इतना ही नहीं , “ गीता और महाभारत भी ईसा की शिक्षाओं के प्रभाव में लिखे हुए ग्रन्थ हैं । और , यह भी कि “ दक्षिण भारत के महान संत-कवि- तिरुवल्लुवर तो पूरी तरह से ईसाई थे , उन्हें ईसा के प्रमुख शिष्यों में से एक- ‘सेन्ट टामस’ ने ईसाइयत की शिक्षा-दीक्षा दी थी ; इस कारण उनकी कालजयी रचना- ‘तिरुकुरल’ में ईसा की शिक्षायें ही भरी हुई हैं ।” भारत के ज्ञान-विज्ञान की चोरी करते रहने वाले पश्चिम के ‘बौद्धिक चोरों’ की ऐसी सीनाजोरी का आलम यह है कि अब कतिपय भारतीय विद्वान ही नहीं , सत्ता-प्रतिष्ठान भी उनकी हां में हां मिलाने लगे हैं । 
          किसी सफेद झूठ को हजार मुखों से हजार-हजार बार कहलवा देने और हजार हाथों से उसे हजार किताबों में लिखवा देने से वह सच के रूप में स्थापित हो जाता है ; स्थापित हो या न हो , वास्तविक सच उसी अनुपात में अविश्वसनीय तो हो ही सकता है । इसी रणनीति के तहत पश्चिमी साम्राज्यवादी उपनिवेशवाद (अब नव-उपनिवेशवाद ) और ईसाई-विस्तारवाद के झण्डाबरदार बुद्धिजीवी-लेखक-भाषाविद पिछली कई सदियों से ‘नस्ल-विज्ञान’ और ‘तुलनात्मक भाषा-विज्ञान’ नामक अपने छद्म-शस्त्रों के सहारे समस्त भारतीय वाङ्ग्मय का अपहरण करने में लगे हुए हैं । चिन्ताजनक बात यह है कि अपने देश का बुद्धिजीवी-महकमा भी इस सरेआम बौद्धिक चोरी-डकैती-अपहरण-बलात्कार से या तो अनजान है या जानबूझ कर मौन है । 
        गौरतलब है कि माल-असबाब की चोरी करने के लिए घरों में घुसने वाले चोर जिस तरह से सेंधमारी करते हैं अथवा किसी खास  चाबी से घर के ताले को खोल लेते हैं , उसी तरह की तरकीबों का इस्तेमाल इन बौद्धिक अपहर्ताओं ने भारतीय वाङ्ग्मय में घुसने के लिए किया । सबसे पहले इन लोगों ने ‘नस्ल-विज्ञान’ के सहारे आर्यों को यूरोपीय-मूल का होना प्रतिपादित कर गोरी चमडी वाले ईसाइयों को सर्वश्रेठ आर्य व उतर-भारतीयों को प्रदूषित आर्य एवं दक्षिण भारतीयों को आर्य-विरोधी ‘द्रविड’ घोषित कर भारत में आर्य-द्रविड-संघर्ष का कपोल-कल्पित बीजारोपण किया और फिर अपने ‘तुलनात्मक भाषा-विज्ञान’ के सहारे संस्कृत को यूरोप की ग्रीक व लैटिन भाषा से निकली हुई भाषा घोषित कर तमिल-तेलगू को संस्कृत से भी पुरानी भाषा होने का मिथ्या-प्रलाप स्थापित करते हुए विभिन्न भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों के अपने मनमाफिक अनुवाद से बे-सिर-पैर की अपनी उपरोक्त स्थापनाओं को जबरिया प्रमाणित-प्रचारित भी कर दिया ।  
       मालूम हो कि दक्षिण भारत की तमिल भाषा में ‘ तिरुकुरल ’ वैसा ही लोकप्रिय सनातनधर्मी-ग्रन्थ है , जैसा उतर भारत में रामायण , महाभारत अथवा गीता । इसकी रचना वहां के महान संत कवि तिरूवल्लुवर ने की है । १९वीं सदी के मध्याह्न में एक कैथोलिक ईसाई मिशनरी जार्ज युग्लो पोप ने अंग्रेजी में इसका अनुवाद किया, जिसमें उसने प्रतिपादित किया कि यह ग्रन्थ ‘अ-भारतीय’ तथा ‘अ-हिन्दू’ है और ईसाइयत से जुडा हुआ है । उसकी इस स्थापना को मिशनरियों ने खूब प्रचारित किया । उनका यह प्रचार जब थोडा जम गया, तब उननें उसी अनुवाद के हवाले से यह कहना शुरू कर दिया कि ‘तिरूकुरल’ ईसाई-शिक्षाओं का ग्रन्थ है और इसके रचयिता संत तिरूवल्लुवर ने ईसाइयत से प्रेरणा ग्रहण कर इसकी रचना की थी, ताकि अधिक से अधिक लोग ईसाइयत की शिक्षाओं का लाभ उठा सकें । इस दावे की पुष्टि के लिए उनने उस अनुवादक द्वारा गढी गई उस कहानी का सहारा लिया, जिसमें यह कहा गया है कि ईसा के एक प्रमुख शिष्य सेण्ट टामस ने ईस्वी सन ५२ में भारत आकर ईसाइयत का प्रचार किया , तब उसी दौरान तिरूवल्लुवर को उसने ईसाई धर्म की दीक्षा दी थी । हालाकि मिशनरियों के इस दुष्प्रचार का कतिपय निष्पक्ष पश्चिमी विद्वानों ने ही उसी दौर में खण्डण भी किया था, किन्तु उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार समर्थित उस मिशनरी प्रचार की आंधी में उनकी बात यों ही उड गई । फिर तो कई मिशनरी संस्थायें इस झूठ को सच साबित करने के लिए ईसा-शिष्य सेन्ट टामस के भारत आने और हिन्द महासागर के किनारे ईसाइयत की शिक्षा फैलाने सम्बन्धी किसिम-किसिम की कहानियां गढ कर अपने-अपने स्कूलों में पढाने लगीं । तदोपरान्त उन स्कूलों में ऐसी शिक्षाओं से शिक्षित हुए भारत की नयी पीढी के लोग ही इस नये ज्ञान को और व्यापक बनाने के लिए इस विषय पर विभिन्न कोणों से शोध अनुसंधान भी करने लगे । भारतीय भाषा-साहित्य में पश्चिमी घुसपैठ को रेखांकित करने वाले विद्वान लेखक- राजीव मलहोत्रा और अरविन्दन नीलकन्दन ने ऐसे ही अनेक शोधार्थियों में से एक तमिल भारतीय- ‘एम० देइवनयगम’ के तथाकथित शोध-कार्यों का विस्तार से खुलासा किया है । उनके अनुसार, देईवनयगम ने मिशनरियों के संरक्षण और उनके विभिन्न शोध-संस्थानों के निर्देशन में अपने कथित शोध के आधार पर अब सरेआम यह दावा कर दिया है कि ‘तिरूकुरल’ ही नहीं , बल्कि चारो वेद और भागवत गीता, महाभारत, रामायण भी ईसाई-शिक्षाओं के प्रभाव से प्रभावित एवं उन्हीं को व्याख्यायित करने वाले ग्रन्थ हैं और संस्कृत भाषा का आविष्कार ही ईसाईयत के प्रचार हेतु हुआ था । उसने वेदव्यास को द्रविड बताते हुए उनकी समस्त रचनाओं को गैर-सनातनधर्मी होने का दावा किया है । अपने शोध-निष्कर्षों को उसने १८वीं शताब्दी के युरोपीय भाषाविद विलियम जोन्स की उस स्थापना से जोड दिया है, जिसके अनुसार सनातन धर्म के प्रतिनिधि- ग्रन्थों को ‘ईसाई सत्य के भ्रष्ट रूप’ में चिन्हित किया गया है ।
         सन १९६९ में देइवनयगम ने एक शोध-पुस्तक प्रकाशित की- ‘वाज तिरूवल्लुवर ए क्रिश्चियन ?’, जिसमें उसने साफ शब्दों में लिखा  है कि सन ५२ में ईसाइयत का प्रचार करने भारत आये सेन्ट टामस ने तमिल संत कवि- तिरूवल्लुवर का धर्मान्तरण करा कर उन्हें ईसाई बनाया था । अपने इस मिथ्या-प्रलाप की पुष्टि के लिए उसने संत-कवि की कालजयी कृति- ‘तिरूकुरल’ की कविताओं की तदनुसार प्रायोजित व्याख्या भी कर दी और उसकी सनातन-धर्मी अवधारणाओं को ईसाई- अवधारणाओं में तब्दील कर दिया । इस प्रकरण में सबसे खास बात यह है कि तमिलनाडू की ‘द्रमुक’-सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उस किताब की प्रशंसात्मक भूमिका लिखी है और उसके एक मंत्री ने उसका विमोचन किया ।
           इस बौद्धिक अपहरण-अत्याचार को मिले उस राजनीतिक संरक्षण से प्रोत्साहित हो कर देइवनयगम दक्षिण भारतीय लोगों को ‘द्रविड’ और उनके धर्म को ‘ईसाइयत के निकट , किन्तु सनातन धर्म से पृथक’ प्रतिपादित करने के चर्च-प्रायोजित अभियान के तहत ‘ड्रेवेडियन रिलिजन’ नामक पत्रिका भी प्रकाशित करता है । उस पत्रिका में लगातार यह दावा किया जाता रहा है कि “सन- ५२ में भारत आये सेन्ट टामस द्वारा ईसाइयत का प्रचार करने के औजार के रूप में संस्कृत का उदय हुआ और वेदों की रचना भी ईसाई शिक्षाओं से ही दूसरी शताब्दी में हुई है, जिन्हें धूर्त ब्राह्मणों ने हथिया लिया” । वह यह भी प्रचारित करता है कि “ ब्राह्मण, संस्कृत और वेदान्त बुरी शक्तियां हैं और इन्हें तमिल समाज के पुनर्शुद्धिकरण के लिए नष्ट कर दिये जाने की जरूरत है ।”
             ऐसी वकालत करने की पीछे वे लोग सक्रिय हैं , जिनकी पुरानी पीढी के विद्वानों-भाषाविदों यथा विलियम जोन्स व मैक्समूलर आदि ने १८वीं सदी में ही संस्कृत को ईसा-पूर्व की और भारतीय आर्यों की भाषा होने पर मुहर लगा रखी है ; किन्तु ये लोग अब कह रहे हैं कि नहीं, इनके उन पूर्वजों से गलती हो गई थी । दर-असल संस्कृत को अब द्रविडों की भाषा बताने वाले इन साजिशकर्ताओं की रणनीति है- दो कदम आगे और दो कदम पीछे चलना ।  
मनोज ज्वाला ; ०१ अगस्त ‘ २०१६
दूरभाष- ९४३१३०८३६२
ई-मेल- jwala362@gmail.com



        
   रावण-दहन से ज्यादा जरुरी है                       मैकाले-दहन
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                          मनोज ज्वाला
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       रावण के हाथों भारत की संस्कृति-सुता सीता का अपहरण जरूर हुआ था, किन्तु हमारी संस्कृति का प्रदूषण कतई नहीं हुआ था । भारतीय संस्कृति की पवित्रता-प्रखरता अक्षुण्ण ही कायम रही थी । वेदों-पुराणों-शास्त्रों में न किसी तरह का कोई आसुरी प्रक्षेपण हुआ था , न ही उनके अनुवाद के नाम पर उनका आसुरीकरण , मैक्समूलरीकरण अथवा अभारतीयकरण और न ही किसी भारतीय का धर्मान्तरण । बल्कि असुराधिपति रावण-विरचित  ‘शिव-ताण्डव’ और  ‘लाल किताब’ नामक दो ऐसे ग्रन्थ  हमारे प्राचीन वाङ्ममय में शामिल हो गए जो शिवोपासना और ज्योतिषीय विवेचना के क्षेत्र में आज भी अनुकरणीय व प्रणम्य हैं । बावजूद इसके हमारे सीमावर्ती समन्दर के दक्षिण पार की स्वर्णिम लंका की असुर (अ)सभ्यता के विस्तारवाद का संवाहक होने के कारण  वह उद्भट्ट शिवोपासक रावण कभी भी हमारे समाज का आदर्श नहीं बन सका , बल्कि सदैव निन्दनीय ही बना रहा । इतना और इस कदर कि आज भी हर वर्ष विजयादश्मी के अवसर पर पुतला-दहन का शिकार होता रहा है रावण ।  
        किन्तु कालान्तर बाद भारत की सीमा से सात-समन्दर पश्चिम पार यूरोप की नस्लभेदी असुर यांत्रिक (अ)सभ्यता-जनित औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के संवाहक मैक्समूलर-मैकाले  ने हमारी किसी सीता का अपहरण किये बगैर न केवल हमारी संस्कृति को प्रदूषित कर दिया और धर्मशास्त्रों-ग्रन्थों को विकृत किया ; बल्कि धर्मान्तरण का सदाबहार बीज बो कर अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति के सहारे हमारी पीढियों को बौद्धिक रूप से इस कदर अपना गुलाम भी बना  लिया कि रावण-वध-विषयक विजयादश्मी का उत्सव भी अब हम पश्चिम के बाजारवादी तरीके से मनाने लगे हैं ।  
         मालूम हो कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के माध्यम से भारत पर अपना औपनिवेशिक शासन-साम्राज्य कायम कर लेने के पश्चात अंग्रेजों ने पहले तो अपने साम्राज्यवादी उपनिवेशवाद का औचित्य सिद्ध करने के लिए अपने तथाकथित विद्वानों-भाषाविदों के हाथों प्राचीन भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों को अपनी सुविधा-योजनानुसार अनुवाद करा कर उनमें तदनुसार तथ्यों का प्रक्षेपण कराया और फिर बाद में भारतीय शिक्षण-पद्धति एवं शिक्षण सामग्री को उलट-फेर कर ऐसा गड-मड कर दिया कि शिक्षा के नाम पर ज्ञान-विज्ञान के भ्रामक भंवर में फंस कर हमारी पीढी-दर-पीढी अपनी जडों से कटती जा रही है और बौद्धिक गुलामी के कीचड में डूबती जा रही है ।  गौरतलब है कि रावण और उसकी असुर संस्कृति के झण्डाबरदारों ने वेद-विरूद्ध आचरण जरूर किया, यज्ञ-विरोधी विध्वंस भी किया और साधु-संतो-ऋषि-मुनियों को पीडित-प्रताडित भी  ; किन्तु बावजूद इन सबके , हमारे वेद-शास्त्रों-ग्रन्थों को प्रदूषित नहीं किया था, कपोल-कल्पित मन्त्रों का प्रक्षेपण कर कभी यह प्रचारित नहीं किया-कराया कि हमारे पूर्वज ऋषि-महर्षि गोमांस खाते थे , अथवा वैदिक यज्ञों में गोमांस की आहूतियां डाली जाती थी । सदियों पुरानी ऋषि-प्रणीत हमारी शिक्षा-पद्धति को जडों से उखाड कर अपनी कोई आसुरी शिक्षा-पद्धति थोपने  और उसके सहारे हमारे बच्चों-पीढियों को असुर बनाने , धर्मान्तरित करने , हमें लंकापेक्षी बनाने और हमारी भाषा को पंगु बनाने व हम पर अपनी भाषा थोपने का काम रावण के द्वारा नहीं किया गया । किन्तु इन सारे अनर्थकारी-अवांछित कार्यों को इस आधुनिक-यांत्रिक युग में समुद्री लुटेरों के संगठन- ईस्ट इण्डिया ट्रेडिंग कम्पनी और उसकी संरक्षक – ब्रिटिश पार्लियामेण्ट से निर्देशित-पोषित-संरक्षित ‘मैक्समूलरासुर’ और ‘मैकालासुर’ द्वारा ऐसी बौद्धिक बर्बरतापूर्वक अंजाम दिया गया कि उसके विषैले परिणाम बीतते समय के साथ और ही विषम होते जा रहे हैं ।
          उल्लेखनीय है कि यूरोपीय औपनिवेशिक साम्राज्यवाद और उसकी पीठ पर सवार ईसाई विस्तारवाद ने भारत में अपनी जडें जमाने के लिए एक तरफ हमारे शास्त्रों-ग्रन्थों के अनुवाद के नाम पर भारतीय वैदिक सनातन ज्ञान-विज्ञान के मूल स्रोतों में प्रक्षेपण कर हमारी अनेक बौद्धिक सम्पदओं का अपहरण कर लिया , तो दूसरे तरफ ऋषि-प्रणीत हमारी प्राचीन समग्र शिक्षण-पद्धति को उखाड फेंक उसके स्थान पर अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति स्थापित कर हमारे परम्परागत ज्ञान-विज्ञान चिन्तन-मन्थन शोध-अनुसंधान के मूल स्रोत- संस्कृत भाषा  को पंगु बनाते हुए हमारे ऊपर अपनी अंग्रेजी भाषा थोप कर हमारी चिन्तना-विचारणा को हमारी जडों से काट कर हमें पूरी तरह से यूरोपाश्रित बना दिया ।  इन दोनों तरह के अनर्थकारी विनाशकारी भारत-विरोधी , वेद-विरोधी कार्यों को अंजाम देने वाले क्रमशः मैक्समूलर और मैकाले तो महिषासुर व रावण से भी ज्यादा खतरनाक असुर प्रतीत होते हैं ।
         सन १७९४ में मनुस्मृति का अंग्रेजी अनुवाद करने वाले विलियम जोन्स ने गोरी चमडी वालों की स्वघोषित श्रेष्ठता और ईसाइयत की आध्यात्मिकता को पुष्ट करने के उद्देश्य से हिन्दूत्व और ईसाइयत के बीच समानता स्थापित करने हेतु हिन्दू-धर्म-ग्रन्थों (संस्कृत-ग्रन्थों) का उपयोग ईसाइयत के समर्थन में तर्क गढने के लिए किया । उसने शब्दों की ध्वनियों से संयोगवश प्रकट होने वाली समानता के बाहरी आवरण के सहारे रामायण के ‘राम’ को बाइबिल के ‘रामा’ से जोड दिया और राम के पुत्र ‘कुश’ को बाइबिल के ‘कुशा’ से । इसी तरह की कई संगतियों को खींच-तान कर उसने यह प्रतिपादित किया कि बाइबिल-वर्णित ‘नूह’ के जल-प्लावन के बाद राम (रामा) ने भारतीय समाज का पुनर्गठन किया, इसलिए भारत बाइबिल से जुडी सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है । उसने बाइबिल में वर्णित बातों को सत्य प्रमाणित करने के लिए संस्कृत-ग्रन्थों से उसकी पुष्टि करने के हिसाब से उनका अनुवाद किया है । इस क्रम में उसने ‘मनु’ को ‘एडम’ घोषित कर दिया और विष्णु के प्रथम तीन अवतारों को नूह के जल-प्लावन की कहानी में प्रक्षेपित कर दिया । इस धुर्ततापूर्ण वर्णन में उसने बाइबिल-वर्णित- ‘नाव पर सवार आठ मनुष्यों’ को मनुस्मृति के ‘सप्त-ऋषि’ घोषित कर दिया ।  
            विलियम जोन्स के बाद भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों के अनुवाद से उसके मिशन को आगे बढाने वालों में फ्रेडरिक मैक्समूलर का नाम सर्वाधिक कुख्यात रहा है, जिसने वेदों का भी अनुवाद किया । आर्यों के युरोपीय मूल के होने सम्बन्धी पूर्व कल्पित-प्रायोजित पश्चिमी कुतर्कों की स्थापना को मजबूती प्रदान करने के लिए भारत पर आर्यों के आक्रमण  की तिथि भी घोषित कर देनेवाले मैक्समूलर का काम कितना विश्वसनीय है यह जानने के लिए उसके दो निजी पत्रों पर गौर करना पर्याप्त है । १६ दिसम्बर १८६८ को ओर्गोइल के ड्यूक , जो ब्रिटेन में एक मंत्री थे को लिखे पत्र में मैक्समूलर कहता है- “मेरे कार्यों से भारत का प्राचीन धर्म पूरी तरह ध्वस्त होता जा रहा है, ऐसे समय में अगर ईसाइयत यहां पैर नहीं जमाती तो यह किसकी गलती होगी ?” उसी वर्ष अपनी पत्नी को लिखे पत्र में उसने लिखा- “…..मैं उम्मीद करता हूं कि मैं इस कार्य को सम्पन्न करूंगा, और आश्वस्त हूं कि मैं वह दिन देखने के लिए जीवित नहीं रहूंगा , फिर भी मेरा यह संस्करण और वेदों का अनुवाद आज के बाद भारत के भविष्य और इस देश में मनुष्यों के विकास को बहुत सीमा तक प्रभावित करेगा । वेद उनके धर्म का मूल है और वह मूल क्या है , इसे उन्हें दिखाने के लिए मैं कटिबद्ध हूं ; जिसका सिर्फ एक रास्ता है कि पिछले तीन हजार वर्षों में जो कुछ भी इससे निकला है उसे उखाड दिया जाये ।” पश्चिम के इन बौद्धिक षड्यंत्रकारियों ने यह भी प्रतिपादित-प्रचारित कर रखा है कि अंग्रेज सबसे शुद्ध आर्य हैं और भारत में साफ चमडी के उतर-भारतीय लोग अशुद्ध आर्य हैं ; जबकि दक्षिण भारतीय लोग द्रविड हैं, जो उतर भारतीय आर्यों से शोषित-प्रताडित होते रहे है । राम को आक्रमणकारी आर्य और रावण को भोले-भाले द्रविडों का राजा बताने वाले इन पश्चिमी बौद्धिक असुरों का दावा है कि संस्कृत भाषा लैटिन व ग्रीक से निकली हुई भाषा है जिसे उत्तर भारतीय ब्राह्मणों ने गैर- सवर्णों व द्रविडों का शोषण करने के लिए हथिया लिया । और यह भी कि भारत की समस्त समस्याओं की जड यह संस्कृत भाषा और यहां कि वर्ण-व्यवस्था है , जो यहां के लोगों के ईसाईकरण में सबसे बडा बाधक है ।
          अपने औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की जडें जमाने हेतु भारत के प्राचीन शास्त्रों-ग्रन्थों , भाषा व समाज-व्यवस्था और इतिहास को इस तरह से विकृत कर उन्हें शैक्षिक पाठ्य-पुस्तकों के माध्यम से पढाने के लिए थामस विलिंगटन मैकाले की कुटिल योजनानुसार ईजाद की गई अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति , जो अपने देश में आज भी कायम है , के दुष्परिणाम हमारे सामने हैं । गुजरात के अहमदाबाद में प्राचीन भारतीय गुरुकुलीय शिक्षा-पद्धति पर विश्व-स्तरीय प्रयोग कर रहे उत्तमभाई शाह के संरक्षण में इसी वर्ष पुनरुत्थान ट्रस्ट द्वारा आयोजित शीर्षस्थ शिक्षाविदों की एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में यह निष्कर्ष उभर कर सामने आया कि वर्तमान भारत की समस्त समस्याओं की जड वास्तव में यह अंग्रेजी-मैकाले शिक्षा-पद्धति ही है , जिसके कारण एक ओर हमारी भाषा-संस्कृति–संस्कार-परम्परायें सब के सब विलुप्त होती जा रही हैं और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हम पश्चिम का आश्रित हो कर रह गये हैं; तो दूसरी ओर समाज में बडी तेजी से नैतिकता व राष्ट्रीयता का क्षरण तथा पारिवारिक-सामाजिक विघटन और भ्रष्टाचार व बलात्कार जैसी आसुरी प्रवृतियों का उन्नयन हो रहा है । सच भी यही है । ऐसे में रावण का पुतला-दहन किये जाने के बजाय मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति का दहन किया जाना अब ज्यादा जरूरी है ।
·              मनोज ज्वाला ;
·              दूरभाष- ९४३१३०८३६२    
        


मैकाले-मैक्समूलर के सामने रावण-महिषासुर भी बौने              
                          मनोज ज्वाला
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       भारत पर अपना औपनिवेशिक प्रभुत्व स्थापित कर लेने के बाद ब्रिटिश हूक्मरानों-चिंतकों व यूरोपियन दार्शनिकों ने भारत को नजदीक से देखने-समझने के बाद यह रहस्य जान लिया था कि इस राष्ट्र की शाश्वतता , इसकी संजीवनी शक्ति अर्थात संस्कृति में सन्निहित है और इसकी संस्कृति का संवाहक है यहां का विपुल साहित्य और शिक्षण । यह जान लेने के बाद उननें भारतवासियों की राष्ट्रीय चेतना को नष्ट-भ्रष्ट कर इसे सदा-सदा के लिए अपने साम्राज्य के अधीन धन-सम्पदा वैभाव-विलास उपलब्ध कराते रहनेवाला ‘इण्डिया’ नामक उपनिवेश बनाये रखने की अपनी दूरगामी कूट्नीतिक योजना के तहत भारतीय संस्कृति पर हमला करने हेतु सर्वप्रथम भारतीय साहित्य को निशाना बनाया और अंग्रेजी-शिक्षण पद्धति को उसका माध्यम । इसके लिए उननें युरोप के कतिपय बौद्धिक महारथियों के साथ षड्यंत्र रच कर फ्रेडरिक मैक्समूलर और थामस विलिंगटन मैकाले के हाथों उसे क्रियान्वित करने-कराने के बावत भारतीय संस्कृति-साहित्य को ब्रिटिश-उपनिवेशवाद व ईसाई- विस्तारवाद के अनुकूल एवं भारतीय राष्ट्र्वाद के प्रतिकूल तोड्ने-मरोडने तथा भारतीय शिक्षण पद्धति को तदनुसार बदल डालने का काम पूरी तत्परता से किया-कराया । अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति को भारत में लागू करने के पीछे ब्रिटिश हूक्मरानों की जो मंशा थी , सो इस शिक्षण-पद्धति के प्रवर्तक– थामस वेलिंगटन मैकाले के एक लेख के निम्नांकित अंश मात्र से स्पष्ट हो जाता है –
      अर्थात , “ जनता (भारतीय जन) की शिक्षा ईसाइयत के सभी रूपों के सामान्य सिद्धांतों व ईसाई मौलिकता के अनुसार व्यवहृत होनी चाहिये । यह शिक्षा (अंग्रेजी शिक्षा) उस मुख्य उद्देश्य की पूर्ति का एक उच्च व मूल्यवान साधन हो , जिसके लिये इस सरकार (ब्रिटिश) का अस्तित्व कायम हुआ है । निश्चय ही यह देश (भारत) ऐसा नहीं है , जहां ईसाइयत का प्रसार अधिक हुआ है ’’ । ध्यातव्य है कि ब्रिटिश-संसद में इस शिक्षा-पद्धति की वकालत करते हुए अपने भाषण में उसने कहा था कि “ भारत पर हम तभी लम्बे समय तक शासन कर सकते हैं, जब इसकी रीढ की हड्डी तोड दें , जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है ” ।
       ब्रिटिश योजना के तहत भारत के छात्र-छात्राओं को भारतीय राष्ट्रीयता के प्रतिकूल धर्मान्तरणकारी शिक्षा देने वाली अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति जब भारत पर (पहले बंगाल में) थोप दी गई , तब अपनी मंशा फलीभूत होते देख इसके मुख्य सूत्रधार थामस मैकाले नें हर्षित होकर अपनें पिता को जो पत्र लिखा उसका अनुवाद भी द्रष्टब्य है । उसने लिखा- “ मेरे प्रिय पिताजी ! हमारे अंग्रेजी स्कूल आश्चर्यपूर्वक उन्नति कर रहे हैं । हिन्दुओं पर इस शिक्षा का अद्भूत प्रभाव पडा है । अंग्रेजी शिक्षा-प्राप्त कोई भी हिन्दू ऐसा नही है, जो अपने धर्म से हार्दिक जुडाव रखता हो । कुछ लोग नीति के मामले में हिन्दू रह गए हैं , तो कुछ ईसाई बनते जा रहे हैं । मेरा यह विश्वास है कि अगर हमारी यह शिक्षण-पद्धति कायम रही तो, यहां की सम्मानित जातियों में आगामी तीस वर्षों के भीतर बंगाल के अंदर एक भी मूर्तिपूजक ( अर्थात हिन्दू ) नहीं रह जायगा । इनके धर्म में न्यूनतम हस्तक्षेप की भी आवश्यकता नहीं पडेगी । स्वाभाविक ही ज्ञान-बृद्धि की विचारशीलता से यह सब हो जायगा । इस सम्भावना पर मुझे हार्दिक प्रसन्न्ता हो रही है ।”
       ऐसा ही हुआ भी, और आज भी हो रहा है । मैकाले-प्रणीत धर्मन्तरणकारी अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति का ही यह परिणाम है कि हमारी पीढियां न केवल दुनिया की सर्वाधिक प्राचीन व समृद्ध भाषा- संस्कृत से दूर हो गई हैं , बल्कि अपनी सांस्कृतिक जडों से भी इस कदर कटती जा रही हैं कि उनमें अंग्रेजियत अपनाने की होड मची हुई है । वर्ष-प्रतिपदा और विक्रम संवत के प्रति लोगों में जिज्ञाशा तक नहीं बची है, किन्तु इक्कतीस दिसम्बर व एक जनवरी को नववर्ष का जश्न मनाने लोग सडकों पर पशुवत आचरण करते देखे जाते हैं । बोल-चाल की मातृ-भाषा में भी अंग्रेजी की छौंक लगाने वाली यह प्रवृति पापा-मम्मी-डैडी से भी आगे बढ कर प्रथम-पूज्य गणेश को ‘गणेशा’ और जगतपिता शिव को ‘गणेश के डैडी’ कहे जाने तक पहुंच गई है ।                                                                                                                 मैकाले ने भारत की ‘रीढ’ तोड देने के लिये हमारा इतिहास शौर्य-स्वाभिमान-विहीनता के हिसाब से ऐसे लिखवाया और भारतीय धर्म-शास्त्रों व वैदिक ग्रंथों का ऐसा विकृत-प्रक्षेपित अनुवाद करवाया कि इन्हें पढनेवालों को सिर्फ हीनता के सिवाय कोई गर्व-बोध हो ही नहीं ; बल्कि ब्रिटिश उपनिवेशवादी सत्ता और ईसाई विस्तारवादी सभ्यता के प्रति प्रशस्ति व भक्ति का मानस निर्मित होता रहे । इस दूरगामी लक्ष्य-सिद्धि हेतु मैकाले ने एक तथाकथित योरोपीय विद्वान- मैक्समूलर को इस कार्य के सम्पादन हेतु आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रतिनियुक्त करवा कर उससे अपनी योजनापूर्वक भारतीय इतिहास-लेखन तथा वेदादि भारतीय शास्त्रों-ग्रंथों का अर्थानुवादकरण कार्य शुरु करवाया । साथ ही इधर भारत भर में यह प्रचारित करवा दिया कि मैक्समूलर संस्कृत व अंग्रेजी का ऐसा प्रकाण्ड विद्वान है कि उसने वेदों-उपनिषदों का अंग्रेजी में जो अर्थानुवाद किया है, सो सर्वथा अदवितीय व प्रामाणिक है ।
         उधर उस मैक्समूलर ने भारतीय साहित्य के अर्थानुवादन का काम कितनी प्रामाणिकतापूर्वक किया सो आप सिर्फ इतने ही से समझ सकते हैं कि उसके द्वारा लिखित-अनुदित पुस्तकों में भारतीयों को यह पढाया जाने लगा कि ‘आर्य’  भारत के निवासी नहीं हैं, बल्कि विदेशी आक्रमणकारी हैं और हिन्दू एक घिनौना व कायर मजहब है ; भारत कोई राष्ट्र नहीं है , बल्कि एक ऐसा महाद्वीप है , जिसमें अनेक देश व अनेक मजहबी संस्कृतियां रहती हैं ; और वेदों-उपनिषदों में अन्धविश्वासी किस्से-कहानियां लिखी हुई हैं , जिनके कारण ही भारत का पतन हुआ ; आदि-आदि । मैक्समूलर की ऐसी कुटिल करतूतों का आपको अगर विश्वास न होता हो , तो लीजिये उसी के एक मित्र रेवरेण्ड एडवर्ड, डाक्टर आफ डिविनिटी ने उसके उन कार्यों पर प्रसन्न होकर उसे जो पत्र लिखा था, उसका अनुवादित अंश देखिये , इससे आपको सहज ही यह विश्वास हो जायेगा ।
      अर्थात, “ तुम्हारा काम (प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुवाद का काम ) भारत को धर्मांतरित करने के प्रयासों में एक नये युग का निर्माण करेगा । तुमको अपने यहां स्थान देकर आक्सफोर्ड ने एक ऐसे काम में सहायता प्रादान की है , जो भारत को धर्मांतरित करने में प्रारम्भिक और चिरस्थाई प्रभाव उत्त्पन्न करेगा ।”
         स्पष्ट है कि अंग्रेजों ने भारत पर अपनी राजनीतिक-धार्मिक प्रभुता-सत्ता की जडों को भारतीय समाज में गहराई तक जमाने के लिये न केवल भारत की प्राचीन गुरूकुलीय शिक्षण-पद्धति को ध्वस्त कर उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति कायम की ; बल्कि भारतीय संस्कृति के संवाहक साहित्य में भी घुसपैठ कर इसे अपने जद में ले लिया ।  इतना ही नहीं, ब्रिटिश हूक्मरानों ने शिक्षण-संस्थानों से लेकर तमाम भाषिक-साहित्यिक-बौद्धिक संस्थानों तक में मैकाले-मैक्समूलरवादी असुरों की नियुक्ति कर हमारी संस्कृत भाषा से भी हमें विमुख कर उसकी जडों में मट्ठा डालने को तत्पर कर दिया । अंततः देश-विभाजन के पश्चात ‘ इण्डिया दैट इज भारत ’ की अंग्रेजी अवधारणा से युक्त हमारा गणतंत्र कायम होने के बावजूद ‘गण’ और ‘तंत्र’ , दोनों पर विलायती ‘इण्डिया’ का शासन कायम हो जाने के कारण शिक्षण-पद्धति वही की वही रह गई- अभारतीय और यूरोपीय । नतीजा यह हुआ कि आज यहां का थोडा शिक्षित व्यक्ति अपनी शिक्षा के कारण ज्ञान-विज्ञान के मूल स्रोत- वेद-वेदांग-पुराण-उपनिषद-सांख्य-सूत्र-रामायण-महाभारत-गीता को काल्पनिक-दकियानुसी मान भारतीय रीति-नीति-भाषा-संस्कृति को नकारते हुए युरोपीय-अंग्रेजों की हर चीज- कुरीति-कुनीति-असभ्यता-अपसंस्कृति-भषा-भूषा अपनाने को तत्पर है , तो ज्यादा शिक्षित व्यक्ति सर्वतोभावेन अंग्रेज बन जाने और भारत छोड कर यूरोपीय देशों में ही बस जाने को उन्मुख है ।
        इस मैकाले शिक्षण-पद्धति को सर्वनाशकारी प्रमाणित करने वाले और भारतीय शिक्षण-पद्धति की पुनर्स्थापना का रचनात्मक आन्दोलन चला रहे उत्तमभाई जवानमल शाह का कहना बिल्कुल सही है कि “आज हमारे देश में जिसके पास जितनी बडी शैक्षणिक डिग्री है , वह उतना ही ज्यादा अंग्रेज है , उसके भीतर भारत एवं भारतीय भाषा-संस्कृत व संस्कृति के प्रति उतना ही ज्यादा तिरस्कार-भाव है ; किन्तु ड्रग-डांस-डिस्को-डायवोर्स वाली पश्चिमी आसुरी अपसंस्कृति से उसका उतना ही ज्यादा लगाव है” । मैकालासुर और मैक्समुलरासुर की संयुक्त साजिश-जनित इस आसुरी अपसंस्कृति के बढते प्रचलन के कारण आज एक ओर जहां भारतीय राष्ट्रीयता और सामाजिक नैतिकता का क्षरण हो रहा है, वहीं दूसरी ओर देश में भ्रष्टाचार व समाज में व्याभिचार बेतहाशा बढ रहा है । इसके मूल में है शिक्षा की अभारतीय भोगवादी शिक्षण-पद्धति, जिसके प्रवर्तक ‘मैकाले’ व ‘मैक्समूलर’ को भारतीय-सुर-संस्कृति-विरोधी ‘असुर’ कहना तनिक भी अतिश्योक्ति नहीं है । इन पश्चिमी असुरों के सामने रावण-महिषासुर भी बौने हैं, बौने । रावण-महिषासुर से हमारी संस्कृति, भाषा, व शिक्षा-पद्धति और हमारे ज्ञान-विज्ञान के स्रोत-सहित्य को कोई क्षति नहीं हुई थी, जबकि इन पश्चिमी असुरों की असुरता से हमें बहुविध क्षति हो चुकी है और लगातार हो रही है । बदलते समय के साथ हमें अपने वास्तविक शत्रुओं की पहचान करनी चाहिए । किन्तु हम तो आज कलयुग की २१वीं सदी में भी त्रेता युग के रावण और देवासुर-संग्राम वाले महिषासुर के पुतलों से ही लड रहे हैं , जबकि आक्रांत हैं  हम उन मायावी असुरों की कलयुगी माया- अर्थात मैकाले-मैक्समूलर के छद्म बौद्धिक आक्रमण से ।     
मनोज ज्वाला / १४ अक्तुबर ’ २०१६
दूरभाष- ९४३१३०८३६२
ई-मेल- jwala362@gmail.com
                                                             मनोज ज्वाला ;

                                        
                                                      





         मैकले-मैक्समूलर के चिन्तन से भारतीय राष्ट्रीयता का क्षरण
                          मनोज ज्वाला
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       भारत पर अपना औपनिवेशिक प्रभुत्व स्थापित कर लेने के बाद ब्रिटिश हूक्मरानों-चिंतकों व यूरोपियन दार्शनिकों ने भारत को नजदीक से देखने-समझने के बाद यह रहस्य जान लिया था कि इस राष्ट्र की शाश्वतता , इसकी संजीवनी शक्ति अर्थात संस्कृति में सन्निहित है और इसकी संस्कृति का संवाहक है यहां का विपुल साहित्य और शिक्षण । यह जान लेने के बाद उननें भारतवासियों की राष्ट्रीय चेतना को नष्ट-भ्रष्ट कर इसे सदा-सदा के लिए अपने साम्राज्य के अधीन धन-सम्पदा वैभाव-विलास उपलब्ध कराते रहनेवाला ‘इण्डिया’ नामक उपनिवेश बनाये रखने की अपनी दूरगामी कूट्नीतिक योजना के तहत भारतीय संस्कृति पर हमला करने हेतु सर्वप्रथम भारतीय साहित्य को निशाना बनाया और अंग्रेजी-शिक्षण पद्धति को उसका माध्यम । उननें मैकाले और मैक्समूलर के हाथों भारतीय संस्कृति-साहित्य को ब्रिटिश साम्राज्य के अनुकूल एवं भारतीय राष्ट्र के प्रतिकूल तोड्ने-मरोडने तथा शिक्षण पद्धति को तदनुसार बदल डालने का काम पूरी तत्परता से किया । अंग्रेजी शिक्षण पद्धति को भारत में लागू करने के पीछे ब्रिटिश हूक्मरानों की जो मंशा थी , सो इस शिक्षण-पद्धति के प्रवर्तक– थामस वेलिंगटन मैकाले के एक लेख के निम्नांकित अंश मात्र से स्पष्ट हो जाता है –
अर्थात , “ जनता (भारतीय जन) की शिक्षा ईसाइयत के सभी रूपों के सामान्य सिद्धांतों व ईसाई मौलिकता के अनुसार व्यवहृत होनी चाहिये । यह शिक्षा (अंग्रेजी शिक्षा) उस मुख्य उद्देश्य की पूर्ति का एक उच्च व मूल्यवान साधन हो , जिसके लिये इस सरकार (ब्रिटिश) का अस्तित्व कायम हुआ है । निश्चय ही यह देश (भारत) ऐसा नहीं है , जहां ईसाइयत का प्रसार अधिक हुआ है ’’ ।
ब्रिटिश योजना के तहत भारत के छात्र-छात्राओं को भारतीय राष्ट्रीयता के प्रतिकूल शिक्षा देने वाली अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति जब भारत में (पहले बंगाल में) कायम कर दी गई , तब अपनी मंशा फलीभूत होते देख इसके मुख्य सूत्रधार थामस मैकाले नें हर्षित होकर अपनें पिता को जो पत्र लिखा उसका अनुवाद भी द्रष्टब्य है-
अर्थात , “ मेरे प्रिय पिताजी !
 हमारे अंग्रेजी स्कूल आश्चर्यपूर्वक उन्नति कर रहे हैं । हिन्दुओं पर इस शिक्षा का अद्भूत प्रभाव पडा है । अंग्रेजी शिक्षा-प्राप्त कोई भी हिन्दू ऐसा नही है, जो अपने धर्म-मजहब से हार्दिक जुडाव रखता हो । कुछ लोग नीति के मामले में हिन्दू रह गए हैं , तो कुछ ईसाई बनते जा रहे हैं । मेरा यह विश्वास है कि अगर हमारी यह शिक्षण-पद्धति कायम रही तो, यहां की सम्मानित जातियों में आगामी तीस वर्षों के भीतर बंगाल के अंदर एक भी मूर्तिपूजक ( अर्थात हिन्दू ) नहीं रह जायगा । इनके मजहब में न्यूनतम हस्तक्षेप की भी आवश्यकता नहीं पडेगी । स्वाभाविक ही ज्ञान-बृद्धि की विचारशीलता से यह सब हो जायगा । इस सम्भावना पर मुझे हार्दिक प्रसन्न्ता हो रही है । ”
     ऐसा ही हुआ भी, और आज भी हो रहा है । उस अंग्रेजी शिक्षा ने राष्ट्र-भक्त के बजाय राजभक्त पैदा करना शुरु कर दिया । ऐसे राजभक्त, जो भारत व भारतीय परम्पराओं का मखौल उडायें, उसे तिरस्कृत करें और ईसाइयत अर्थात अंग्रेजी संस्कृति के रंग में रंग कर अंग्रेजी राज एवं अंग्रेजी राजनीति का प्रशंसक–संवर्द्धक-सेवक बन अंग्रेजी हितों के संवर्द्धन में प्रयुक्त होते रहें ; भारतीय ऐतिहासिक पुरुषों-पूर्वजों की गाली-गलौजपूर्ण निन्दा करें और ब्रिटिश शासनाधिकारियों को सहायता-समर्थन देते हुये भारत पर ब्रिटिश शासन को ही भारतीयों की उन्नति-प्रगति के लिये आवश्यक मानें । अपने इस कार्य को और अधिक मजबूति से अंजाम देने के लिये मैकाले नें भारतीयों के शिक्षणार्थ भारत का इतिहास शौर्य-स्वाभिमान-विहीनता के हिसाब से ऐसे लिखवाया और भारतीय धम-शास्त्रों व वैदिक ग्रंथों का ऐसा विकृत अनुवाद करवाया कि इन्हें पढनेवालों को सिर्फ हीनता के सिवाय कोई गर्व-बोध हो ही नहीं ; बल्कि ब्रिटेन की सत्ता-सभ्यता-संस्कृति व इतिहास के प्रति प्रशस्ति व भक्ति का मानस निर्मित होता रहे ।
        इस दूरगामी ल्क्ष्य-सिद्धि हेतु मैकाले ने एक तथाकथित योरोपीय विद्वान- मैक्समूलर को इस कार्य के सम्पादन हेतु तैयार किया । अपनी ततसम्बन्धी मंशा पर ब्रिटिश सरकार की मुहर लगवाकर उसने मैक्समूलर को आक्सफोर्ड विश्वबिद्यालय में प्रतिनियुक्त करवाया और तब फिर उससे अपनी योजनापूर्वक भारतीय इतिहास-लेखन तथा वेदादि भारतीय शास्त्रों-ग्रंथों का अर्थानुवादकरण कार्य शुरु करवाया । साथ ही इधर भारत भर में यह प्रचारित करवा दिया कि मैक्समूलर संस्कृत व अंग्रेजी का ऐसा प्रकाण्ड विद्वान है कि उसने वेदों-उपनिषदों का अंग्रेजी में जो अर्थानुवाद किया है, सो सर्वथा अदवितीय व प्रामाणिक है ।
         उधर उन मैक्समूलर ने भारतीय साहित्य के अर्थानुवादन का काम कितनी प्रामाणिकतापूर्वक किया सो आप सिर्फ इतने ही से समझ सकते हैं कि उसके द्वारा लिखित-अनुदित पुस्तकों में भारतीयों को यह पढाया जाने लगा कि ‘आर्य’  भारत के निवासी नहीं थे, बल्कि विदेशी आक्रमणकारी थे और हिन्दू एक घिनौना व कायर मजहब है ; भारत कोई राष्ट्र नहीं है , बल्कि एक ऐसा महाद्वीप है , जिसमें अनेक देश व अनेक मजहबी संस्कृतियां रहती हैं ; और वेदों-उपनिषदों में अन्धविश्वासी किस्से-कहानियां लिखी हुई हैं , जिनके कारण ही भारत का पतन हुआ ; आदि-आदि । मैक्समूलर की ऐसी कुटिल करतूतों का आपको अगर विश्वास न होता हो , तो लीजिये उसी के एक मित्र रेवरेण्ड एडवर्ड, डाक्टर आफ डिविनिटी ने उसके उन कार्यों पर प्रसन्न होकर उसे जो पत्र लिखा था, उसका यह अंश देखिये , इससे आपको सहज ही यह विश्वास हो जायेगा । अर्थात,      “ तुम्हारा काम (प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुवाद का काम ) भारत को धर्मांतरित करने के प्रयासों में एक नये युग का निर्माण करेगा । तुमको अपने यहां स्थान देकर आक्सफोर्ड ने एक ऐसे काम में सहायता प्रादान की है , जो भारत को धर्मांतरित करने में प्रारम्भिक और चिरस्थाई प्रभाव उत्तपन्न करेगा ।”
     स्पष्ट है कि अंग्रेजों ने भारत पर अपनी प्रभुता-सत्ता की जडों को भारत में गहराई तक जमाने के लिये न केवल भारत की प्राचीन गुरूकुलीय शिक्षण-पद्धति को ध्वस्त कर उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति कायम की ; बल्कि भारतीय संस्कृति के संवाहक साहित्य में भी घुसपैठ कर इसे अपने जद में ले लिया । और , इसके साथ ही उनने प्रेस-मीडिया नामक आधुनिक वैचारिक संस्था को भी जन्म दिया और उसके स्वतंत्र-निष्पक्ष होने का पाखण्ड कायम किया । फिर उस अंग्रेजी प्रेस-मीडिया के वे मैकालेजीवी कारिन्दे अपनी-अपनी कलम से ब्रिटिश साम्राज्य का हित-पोषण करने लगे । इतना ही नहीं, ब्रिटिश हूक्मरानों ने शिक्षण-संस्थानों से लेकर तमाम भाषिक-साहित्यिक-बौद्धिक संस्थानों तक में अंग्रेजी-परस्त लोगों की नियुक्ति कर उन्हें भारतीय संस्कृति व साहित्य की जडों में मट्ठा डालने को  भी तत्पर कर दिया ।
       अंततः देश-विभाजन के साथ अंग्रेजों ने अपनी कुटिल कुटिलतापूर्ण नीति के तहत अंग्रेजीपरस्त हाथों में ही रक्त-रंजित सत्ता का हस्तांतरण कर आजादी का भ्रम कायम कर दिया । फिर  ‘ इण्डिया दैट इज भारत ’ की अंग्रेजी अवधारणा से युक्त गणतंत्र भी हुआ कायम, किन्तु गण और तंत्र , दोनों पर इंग्लैण्ड के उतराधिकारी ‘इण्डिया’ का शासन कायम हो गया | शिक्षण-पद्धति वही की वही रह गई- अभारतीय और यूरोपीय । नतीजा यह है कि आज थोडा शिक्षित व्यक्ति अपनी शिक्षा के कारण गांव छोड शहर भागने को तत्पर है और ज्यादा शिक्षित व्यक्ति भारत छोड कर यूरोपीय देशों की ओर उन्मुख । भारतीय शिक्षण-पद्धति की पुनर्स्थापना को प्रयत्नशील उत्तमभाई जवानमल शाह का कहना है कि आज हमारे देश में जिसके पास जितनी बडी शैक्षणिक डिग्री है , वह उतना ही ज्यादा अंग्रेज है , उसके भीतर भारत के प्रति उतना ही ज्यादा तिरस्कार-भाव है ; किन्तु ड्रग-डांस-डिस्को-डायवोर्स वाली पश्चिमी अपसंस्कृति से उसका उतना ही ज्यादा लगाव है । इस अपसंस्कृति के बढते प्रचलन के कारण आज एक ओर जहां राष्ट्रीयता और नैतिकता का क्षरण हो रहा है, वहीं दूसरी ओर समाज में व्याभिचार व भ्रष्टाचार बेतहाशा बढ रहा है , जिसके मूल में है शिक्षा की अभारतीय शिक्षण-पद्धति अर्थात मैकाले व मैक्समूलर की छद्म नीति ।
मनोज ज्वाला / ०१ जून ’ २०१६
दूरभाष- ९४३१३०८३६२
ई-मेल- jwala362@gmail.com
                                                             मनोज ज्वाला ;

                                        
                                                      




                  कठघरे में  संविधान !?
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                                                      मनोज ज्वाला
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            हमारे देश भारत का  संविधान  ‘भारतीय संविधान’ नहीं है , यह ‘अभारतीय संविधान’ है । मतलब यह कि जिसे भारतीय संविधान कहा जा रहा है , इसका निर्माण हम भारत के लोगों ने अथवा हमारे पूर्वजों ने हमारी इच्छानुसार नहीं किया है । वैसे कहने-कहाने देखने-दिखाने को तो इस संविधान की मूल प्रति पर देश के २८४ लोगों के हस्ताक्षर हैं , किन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं हुआ कि यह संविधान भारत का है और भारतीय है , क्योंकि वास्तविकता यह है कि उन लोगों को भारत की ओर से अधिकृत किया ही नहीं गया था कि वे किसी संविधान पर हस्ताक्षर कर उसे भारत के संविधान तौर पर आत्मार्पित कर लें । इस दृष्टि से यह अवैध , फर्जी और अनैतिक है ।
             मालूम हो कि इस संविधान को तैयार करने के लिए कैबिनेट मिशन प्लान के तहत ३८९ सदस्यों की एक "संविधान सभा" का गठन किया गया था , जिसमे ८९ सदस्य देशी रियासतों के प्रमुखों द्ववारा मनोनीत किये गए तथा अन्य ३०० सदस्यों का चुनाव ब्रिटेन-शासित प्रान्तों की विधानसभा के सदस्यों द्वारा किया गया था । इन ब्रिटिश प्रान्तों की विधानसभा के सदस्यों का चुनाव, ‘भारत शासन अधिनियम १९३५’ के तहत सिमित मताधिकार से , मात्र १५% नागरिको द्वारा वर्ष १९४५ में किया गया था , जिसमे ८५% नागरिको को मतदान के अधिकार से वंचित रखा गया था ।
             संविधान सभा सर्वप्रभुत्ता-संपन्न और भारतीय जनता की सर्वानुमति से उत्त्पन्न नहीं थी ।  ब्रिटिश संसद के  कैबिनेट मिशन प्लान १९४६ की शर्तो के दायरे में रह कर काम करना और संविधान के तय मसौदे पर ब्रिटिश सरकार से अनुमति प्राप्त करना उस सभा की बाध्यता थी । उस संविधान-सभा के ही एक सदस्य दामोदर स्वरूप सेठ ने उक्त सभा की अध्यक्षीय पीठ को संबोधित करते हुए कहा था कि  “ यह सभा भारत के मात्र १५ % लोगों का प्रतिनिधित्व कर सकती है , जिन्होंने प्रान्तीय विधानसभाओं के चयन-गठन में भाग लिया है । इस संविधान-सभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष ढंग से हुआ ही नहीं है  । ऐसी स्थिति में जब देश के ८५ % लोगों प्रतिनिधित्व न हो , उनकी यहां कोई आवाज ही न हो तब ऐसे इस सभा को समस्त भारत का संविधान बनने का अधिकार है , यह मान लेना मेरी राय में गलत है ।”
                   उल्लेखनीय है कि १३ दिसंबर १९४६ को संविधान की प्रस्तावना पेश की गई थी, जिसे २२ जनवरी १९४७ को संविधान-सभा ने स्वीकार किया । सभा की उस  बैठक में कुल २१४ सदस्य ही उपस्थित थे, अर्थात ३८९ सदस्यों वाली संविधान-सभा में कुल ५५% सदस्यों ने ही संविधान की प्रस्तावना को स्वीकार किया , जिसे संविधान की आधारशिला माना जाता है ।  यहां ध्यान देने की बात है कि २२ जनवरी १९४७ को, संविधान की प्रस्तावना को जिस दार्शनिक आधारशिला के तौर पर स्वीकार किया गया था उसे अखंड भारत के संघीय संविधान के परिप्रेक्ष्य में बनाया गया था वह भी इस आशय से कि इसे ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति अनिवार्य थी क्योंकि २२ जनवरी १९४७ को भारत पर ब्रिटिश क्राऊन से ही शासित था । १५ अगस्त १९४७ के बाद से लेकर २६ जनवरी १९५० तक भी भारत का शासनिक प्रमुख गवर्नर जनरल ही हुआ करता था ब्रिटिश क्राऊन के प्रति वफादारी की शपथ लिया हुआ था न कि भारतीय जनता के प्रति । इस संविधान के अनुसार राष्ट्रपति का पद सृजित-प्रस्थापित होने से पूर्व लार्ड माऊण्ट बैटन पहला गवर्नर जनरल था , जबकि चक्रवर्ती राजगोपालाचारी दूसरे । मालूम हो कि ब्रिटिश सरकार के निर्देशानुसार तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय बावेल ने बी०एन० राव नामक एक आई०सी०एस० अधिकारी को संविधान-सभा का परामर्शदाता नियुक्त कर रखा था , जिसने ब्रिटिश योजना के तहत संविधान का प्रारूप तैयार किया और संविधान-सभा ने उसी पर थोडा-बहुत वाद-विवाद कर उसे चुपचाप स्वीकार कर लिया । उस "संविधान सभा" के गठन में भी आज़ाद भारत के लोगो की न तो कोई भूमिका थी और न ही को योगदान । भारत के लोगो ने उक्त संविधान सभा को न तो चुना ही था और न ही उसे अधिकृत किया था कि वे लोग हम भारत के लोगो के लिए संविधान लिख । .सत्य तो यह है कि भारत के लोगो से इस संविधान की पुष्टि भी नहीं करवायी  गयी ।  बल्कि संविधान में ही धारा ३८४ सृजित कर , उसी के तहत इसे हम भारत के लोगों पर थोप दिया गया है , जो अनुचित , अवैध और अनाधिकृत है । इस तरह से अनाधिकृत लोगों द्वारा तैयार किये गए इस संविधान के तहत कार्यरत सभी संवैधानिक संस्थाएं अनुचित , अवैध और अनाधिकृत हैं जैसे --- संसद , विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका आदि जिसे बनाने में भारत के लोगो की सहमति नहीं ली गयी है ।
                   गौरतलब  है कि उच्चतम न्यायलय की १३ जजों की संविधान पीठ ने वर्ष १९७३ में  “ केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य ”  के मामले में भारतीय संविधान के बारे में कहा है कि भारतीय संविधान, स्वदेशी उपज नहीं है और भारतीय संविधान का स्त्रोत भारत नहीं है , तो ऐसी परिस्थिति में विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसी संवैधानिक संस्थाए भी तो स्वदेशी उपज नहीं हैं और न ही भारत के लोग इन संवैधानिक संस्थाओ के स्रोत हैं । उपरोक्त वाद में उच्चतम न्यायलय के न्यायाधीशों ने इस ताथाकथित भारतीय संविधान को ही इसके स्रोत और इसकी वैधानिकता के बावत कठघरे में खडा करते हुए निम्नलिखित बातें कही हैं, जो न्यायालय के दस्तावेजों  में आज भी सुरक्षित हैं-

१- भारतीय संविधान स्वदेशी उपज नहीं है - जस्टिस पोलेकर

२- भले ही हमें बुरा लगे , परन्तु वस्तु-स्थिति यही है कि संविधान सभा को संविधान लिखने का अधिकार भारत के लोगो ने नहीं दिया था, बल्कि ब्रिटिश संसद ने दिया था । संविधान सभा के सदस्य न तो समस्त भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व करते थे और न ही भारत के लोगो ने उनको यह अधिकार दिया था कि वे भारत के लिए संविधान लिखें - जस्टिस बेग


३- यह सर्व विदित है कि संविधान की प्रस्तावना में किया गया वादा ऐतिहासिक सत्य नहीं है . अधिक से अधिक सिर्फ यह कहा जा सकता है कि संविधान लिखने वाले संविधान सभा के सदस्यों को मात्र २८.५ % लोगो ने अपने परोक्षीय मतदान से चुना था और ऐसा कौन है , जो उन्ही २८.५% लोगों को ही ‘भारत के लोग’ मान लेगा - जस्टिस मैथ्यू

४- संविधान को लिखने में भारत के लोगो की न तो कोई भूमिका थी और न ही कोई योगदान - जस्टिस जगमोहन रेड्डी
                   स्पष्ट है कि हमारे  संविधान की आत्मा भारत पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को कायम रखने की सुविधा व अनुकूलता के हिसाब ब्रिटिश पार्लियामेण्ट द्वारा समय-समय पर पारित कानूनों यथा- इण्डिया काऊंसिल ऐक्ट-१८६१ तथा भारत शासन अधिनियम-१९३५ और कैबिनेट मिशन प्लान- १९४६ एवं इण्डियन इंडिपेण्डेन्स ऐक्ट- १९४७ का संकलन मात्र है जबकि इसका शरीर अमेरिका , ब्रिटेन , रूस , फ्रांस, जर्मनी आदि देशों के संविधान से लिए गए  विभिन्न अंगों-अवयवों का समुच्चय है । यह कहीं से भी भारतीय नहीं है । इस संविधान के आधार-स्तम्भ पर  कायम हमारे ‘गणतंत्र’ का जन-मन से कोई सम्बन्ध-सरोकार नहीं है , जबकि हमारे राष्ट्र-गान में जन-मन के बीच में है ‘गण’ । अर्थात यह कहने को है भारतीय संविधान , किन्तु वास्तव में यह पूरी तरह से अभारतीय है  । इसे अधिक से अधिक इण्डिया नामक ब्रिटिश डोमिनियन  का संविधान कहा जा सकता है , भारतवर्ष का तो कतई नहीं । अहमदाबाद में प्राचीन भारतीय रीति से हेमचन्द्राचार्य संस्कृत पाठशाला नाम का एक गुरूकुल चलाने वाले प्रखर शिक्षाविद और ‘विनियोग परिवार’ मुम्बई के बयोवृद्ध चिन्तक अरविन्द भाई पारेख की मानें , तो यह संविधान भारत के विरुद्ध अंग्रेजों तथा ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्रों का पुलिंदा मात्र है । अल्पसंख्यकों (ईसाइयों) के हित-रक्षण के नाम पर इस संविधान में अनेक ऐसे प्रावधान किए गए हैं , जिनके कारण हमारा गणतंत्र हमारे राष्ट्र को  हमारी सांस्कृतिक जडों से काटने का यंत्र बन गया है ।
                       मालूम हो कि इस संविधान के बावत ०२ सितम्बर १९५३ को विपक्षी सदस्यों द्वारा पूछे गए एक प्रश्न का उत्तर देते हुए भीमराव अम्बेदकर ( जो संविधान सभा की प्रारूपण समिति के अध्यक्ष थे ) ने कहा था कि “ उस समय मैं भाडे का टट्टू था , मुझे जो कुछ करने को कहा गया , वह मैंने अपनी इच्छा के विरूद्ध जाकर किया ” । इतना ही नहीं, तत्कालीन गृहमंत्री कैलाशनाथ काट्जु द्वारा यह कहने पर कि आपने ही इस संविधान का प्रारूप तैयार किया है , अम्बेदकर ने भरी संसद में उत्तेजित होते हुए कहा- “अध्यक्ष महोदय ! मेरे मित्र कहते हैं कि मैंने संविधान बनाया , किन्तु मैं यह कहने को बिल्कुल तैयर हूं कि इसे जलाने वालों में मैं पहला व्यक्ति होउंगा, क्योंकि मैं इसे बिल्कुल नहीं चाहता , यह किसी के हित में नहीं है ”।  
·              मनोज ज्वाला ; जनवरी’ २०१७



 गणतंत्र के ६७ वर्ष ; अनर्थ ही अनर्थ
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                        मनोज ज्वाला
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    २६ जनवरी सन १९५० से जन-मन के बीच हमारे गणतंत्र की आरम्भ हुई यात्रा विविध राजनीतिक हालातों अवसरों चुनौतियों व प्रवृतियों से होती हुई आज एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गई है , जहां एक ओर इसकी अब तक की उपलब्धियों पर गौर फरमाने की जरुरत महसूस हो रही है , तो वहीं दूसरी ओर इसके गंतब्य की दृष्टि से इसके चाल-चलन और इसकी दशा-दिशा पर विमर्श करना भी आवश्यक प्रतीत हो रहा है । ऐसा इस कारण क्योंकि स्वतंत्रता आन्दोलन की कोख से उत्पन्न इस गणतंत्र की संवैधानिक अवधारणा को अपनाने के साथ हमारे देश के नीति-नियन्ताओं ने ‘जन-मन’ की आकांक्षाओं के अनुरूप जो लक्ष्य निर्धारित किये थे , मंजिलें तय की थी और इस यात्रा के जिन परिणामों की कल्पना की थी वो आज भी हमें प्राप्त नहीं हो सके हैं । हालाकि हमारी यात्रा एक दिन भी कहीं रुकी नहीं है , हम चलते ही रहे हैं लगातार , तरह-तरह के प्रयोग भी करते रहे हैं इस दरम्यान अनेक बार ।
              ऐसा भी नहीं है कि हमारे स्वतंत्रता-आन्दोलन के गर्भ से निकले संविधान की धुरी पर कायम गणतंत्र के रथ को लोकतंत्र की पटरी पर हांकने-चलाने वाले हमारे सारथी-दल के लोग प्रशिक्षित नहीं रहे हैं , बल्कि सच तो यह है कि वे जरुरत से ज्यादा ही प्रशिक्षित और चालाक रहे हैं । उन्हें ब्रिटिश सरकार की काऊंसिलों से लेकर कांग्रेस नामक तत्कालीन राजनीतिक मंच के माध्यम से प्रशिक्षण मिलते रहे थे और आज भी विविध रूपों में सदैव मिल ही रहे हैं ।  किन्तु , युरोप से आयातित लोकतंत्र की पट्टी पर सत्ता का सवाल हल करने के लिए चुनावी अंकगणित के संख्या-समीकरण का पाठ रट-पढ कर इस गणतंत्र के रथ का संचालन-परिचालन करने वाले रथियों-सारथियों-रहनुमाओं ने जन-मन की उपेक्षा करते हुए इसका वास्तविक-मौलिक अर्थ बदल कर अनैतिक-अवांछित अनर्थ  कायम कर दिया है ।
             इसकी शुरुआत तभी से हो गई थी जब सन १९४६ में अंतरीम सरकार के गठन से पहले कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव होने लगा तब उसकी सोलह में बारह प्रांतीय समितियों के सर्व-सम्मत निर्णय के आधार पर केन्द्रीय कार्यकारिणी के अधिकतर सदस्यों ने सरदार पटेल के पक्ष में मतदान कर दिया , किन्तु ऐन मौके पर महात्मा गांधी ने पटेल को अध्यक्ष बनने से मना करते हुए सबको नेहरू के शब्दों में ही समझाया कि  “ नेहरू अगर अध्यक्ष नहीं बन पाया , तो वह प्रधानमंत्री भी नहीं बन पाएगा और तब कोई नहीं जानता कि वह क्या ‘अनर्थ’ कर देगा ” । प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता व स्वतंत्र भारत के प्रथम मंत्रिमण्डल के सदस्य वी० एन० गाडगिल ने अपनी पुस्तक- ‘गवर्न्मेण्ट फ्राम इनसाइड’ में इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए विस्तार से जो लिखा है उसका सार यह है कि “ नेहरू ने कार्यकारिणी के सदस्यों को एक तरह से धमका कर गांधी जी के सहारे अध्यक्ष का पद हासिल किया, जिसकी बदौलत आगे वे अंतरीम सरकार के प्रधानमंत्री बन सके और फिर स्वतंत्र भारत की सत्ता हासिल कर भारतीय गणतंत्र के नियामक बन बैठे ”  ।
             प्रधानमंत्री रहते हुए जवाहर लाल नेहरू ने पूरे कांग्रेस संगठन को किस कदर अपनी मुट्ठी में रखा और किस तरह से अपनी पुत्री को संगठन के शीर्ष पर स्थापित कर दिया यह तथ्य अगर सबको मालूम नहीं भी है , तो कम से कम इतना तो सभी जानते ही हैं कि कांग्रेस के अध्यक्ष तथा देश के प्रधानमंत्री का पद इंदिरा गांधी को सिर्फ और सिर्फ इसी कारण सहज हासिल हो सका कि वो उनके वंश की इकलौती संतान थीं । फिर राजीव गांधी किस आधार पर प्रधानमंत्री बने तथा सोनिया गांधी किस राजनीतिक प्रतिभा के बूते कांग्रेस की अध्यक्ष बन गई और उनका पुत्र किस आधार पर आज प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बना हुआ है , यह यहां का अदना सा आदमी भी जानता है । लाल बहादुर शास्त्री के अत्यल्प कालखण्ड और राजीव गांधी की हत्या से उत्पन्न परिस्थितियों के कारण प्रधानमंत्री बने पी०वी०नरसिंम्हाराव के  कार्य-काल को छोड कर इस ‘लोकतांत्रिक गणतंत्र’ और ‘गणतांत्रिक लोकतंत्र’ के सबसे बडे सहयात्री दल को देखने पर उसके भीतर के क्षेत्रीय क्षत्रप भी ‘वंशतंत्र’ का बीज-वृक्ष बोते-सिंचते हुए उसके फलों से अपना-अपना स्वार्थ साधते हुए जन-गण-मन की आकांक्षाओं का गला घोंटते ही दिखाई देते रहे हैं । 
                       देश में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट द्वारा तैयार की गई संसदीय राजनीति की जमीन पर गणतंत्र के बीजारोपण के पश्चात उसके पल्लवित-पुष्पित होने में कांग्रेस की भूमिका एक माली की तरह रही, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता । किसी पौधे की जडों में माली जिस तरह से जैसा खाद-पानी डाल कर उसका पोषण करता है , उसी के अनुरूप उसका प्रतिफलन होता है । जाहिर है , आज अपने गणतंत्र की जो हालत है , उसके लिए कांग्रेस के साथ-साथ नेहरू ही ज्यादा जिम्मेवार हैं, जिन्होंने इसे ‘वंशतंत्र’ में तब्दील कर दिया । क्योंकि , प्रारम्भिक दौर में उनके द्वारा कांग्रेस की जो रीति नीति  विकसित की गई , वही बाद में भारतीय राजनीति व लोकतंत्र की संस्कृति और हमारे गणतंत्र एवं इसके रखवालों की प्रवृति बन गई ।  इंदिरा गांधी द्वारा स्वयं के भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने के लिए ‘आपात-स्थिति’ के नाम पर ‘गणतंत्र’ को बंधक बना कर कायम की गई तानाशाही और राजीव गांधी द्वारा रक्षा-हथियारों की खरीद में की गई रिश्वतखोरी की कोख से उपजी वे सभी  सरकारें  भी उसी लीक पर चलती रहीं जिसे गणतंत्र की स्थापना के साथ ही कांग्रेस ने खींच रखी थी । इसका कारण यह था कि गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर कायम हुए वे दल वास्तव में गैर-कांग्रेसी थे ही नहीं, क्योंकि वे सब तो कांग्रेस से निकले और निकाले हुए लोगों का जमावडा मात्र थे, जिनमें से कुछ आज भी हैं । वामपंथी साम्यवाद और दक्षिणपंथी समाजवाद भी वस्तुतः कांग्रेस के ही खर-पतवार व सिपहसालार सिद्ध होते रहे हैं , क्योंकि संविधान में ईजाद किए गए ‘धर्मनिरपेक्षता’ नामक मायावी शब्द-जाल के सहारे इन दोनों ही विचारधाराओं के झण्डाबरदार नेतागण सत्ता-सुख भोगने हेतु अपनी-अपनी सुविधानुसार कांग्रेस के ‘सत्तावाद’ से ही हाथ मिलाते रहे हैं ।
        इंदिरा गांधी के शासन-काल में हुए पाक-विखण्डन व बांग्लादेश के सृजन तथा बैंकों के राष्ट्रीयकरण और राजाओं-रजवाडों के प्रिवी-पर्श (पेंशन) के समापन से एक ओर हमारे गणतंत्र की सम्प्रभुता में चमक तो आई , किन्तु वहीं से गणतंत्र का क्षरण भी आरम्भ हो गया । उच्च न्यायालय के फैसले के विरूद्ध देश पर ‘आपात-स्थिति’ थोप कर तमाम गणतांत्रिक संस्थाओं की स्वायतता-स्वतंत्रता को अपनी तानाशाही की मुट्ठी में कैद कर लेने का इंदिरा गांधी का फैसला और उस दौरान उनके द्वारा राजनीतिक लाभ के लिए संविधान को अनाप-सनाप अनेक संशोधनों से आहत किया जाना वास्तव में उनके ऐसे कदम थे, जिनकी वजह से न केवल गणतंत्र , बल्कि हमारा लोकतंत्र भी ‘बलतंत्र’ में  रुपान्तरित हो कर कई संक्रामक बीमारियों से पीडित हो गया । मालूम हो कि आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने विरोधियों-विपक्षियों को सलाखों के भीतर डाल कर अपने राजनीतिक लाभ के लिए संसद में विपक्ष की उपस्थिति के बगैर संविधान में इतना अधिक संशोधन कर दिया कि उस दौर में संविधान को ‘इंदिरा संविधान’ कहा जाने लगा था । हालाकि आपातकाल के बाद मोरारजी देशाई के नेतृत्व में सत्तासीन हुई जनता पार्टी की सरकार द्वारा इंदिरा की तनाशाही से संविधान में किये  गए अधिकतर संशोधनों को निरस्त कर दिया गया , किन्तु देश की राजनीति में इंदिरा गांधी द्वारा कायम की गई दुष्प्रवृतियों का उन्मूलन आज तक नहीं किया जा सका ।
                 नेताओं में निजी लाभ के लिए कानून व पद का मनमाना इस्तेमाल करने तथा चुनाव जीतने के लिए धन-बल का असीमित उपयोग करने और  सत्ता हासिल करने के निमित्त नीतियों-सिद्धांतों-आदर्शों से इतर , कुछ भी अनैतिक करने में नहीं हिचकने जैसी प्रवृतियों को इंदिरा गांधी के फैसलों से ही पंख लग गए । राजीव गांधी के शासनकाल में तो हालत ऐसी हो गई कि यह पूरा तंत्र ‘लूटतंत्र’ में इस कदर तब्दील हो गया कि स्वयं प्रधानमंत्री ने ही यह कह दिया था कि दिल्ली से गांवों को जाने वाली बजट-राशि के अस्सी प्रतिशत भाग ऊपर-ऊपर ही लूट लिए जाते हैं, महज बीस प्रतिशत ही धरातल पर पहुंच पाते हैं । बाद के काल-खण्ड में जनता दल के विश्वनाथप्रताप सिंह व इन्द्र कुमार गुजराल और एच० डी० देवगौडा व समाजवादी चन्द्रशेखर के नेतृत्व-प्रधानमंत्रित्व में बनी गैर-कांग्रेसी सरकारों की बात करें तो वह हमारे लोकतंत्र और गणतंत्र के क्षरण का ही प्रतिफलन था । यह वही दौर था जब अपने देश में राजनीति मण्डी बन गई , लोकतंत्र उद्योग बन गया और गणतंत्र व्यापारिक प्रतिष्ठान । जयप्रकाश नारायण व राममनोहर लोहिया के समाजवाद के नाम पर उनके चेलों-चमचों ने गणतंत्र के आंगन में संविधान की आंच पर अंग्रेजों के शासनकाल से ही चढी हुई जातीय आरक्षण की कडाही में सामाजिक न्याय की चासनी से युक्त दलितवाद , महादलितवाद , बहुजनवाद , क्षेत्रीयतावाद , अल्पसंख्यकवाद , पिछडावाद , अति पिछडावाद जैसे किसिम-किसिम के पकवान पका-पका कर अपना-अपना ‘वोटबैंक’ बनाने वास्ते राजनीति की मण्डी में उतार दिया , जिससे समूचे लोकतंत्र का  जायका ही बिगाड गया । फिर तो राष्ट्र की एकता , अखण्डता व राष्ट्रीय अस्मिता की कीमत पर भी वोट बटोरने और सता सुख भोगने को ही राजनीति का साध्य माना जाने लगा  । सत्ता हासिल करने और सत्ता में बने रहने के लिए जनता के ‘मतों’ से ले कर जन-प्रतिनिधि कहलाने वाले विधायकों सांसदों तक की खरीद-फरोख्त होने लगी । इसकी रोकथाम के लिए दल-बदल विधेयक से कानून बना तो ‘बीमारी का मर्ज ‘घटने के बजाय और बढता ही गया- ‘सदन के घोडे’ थोक भाव में रातोंरात एक तिहाई से अधिक संख्या-समूह में दल-बदल करने लगे । देश में ऐसा वातावरण निर्मित हो गया कि लोग सहज ही यह महसूस करने लगे कि हमारे गणतंत्र का संविधान ही गडबड है । कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव द्वारा संसद में अपना बहुमत सिद्ध करने वास्ते झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के नेता को चालीस लाख रुपये घूस दिए जाने से गणतंत्र को ‘बिक्रीतंत्र’ में तब्दील कर देने का जो अनर्थकारी सिलसिला शुरू हुआ , सो मनमोहन सिंह की ओर से समाजवादी अमर सिंह के हाथों गैर कांग्रेसी सांसदों की खरीद हेतु प्रयुक्त हुए करोडों रुपयों का भाजपाइयों द्वारा सदन में ही सरेआम मुद्रामोचन कर दिए जाने से गणतंत्र के बेआबरू हो ‘बेशर्मतंत्र में तब्दील हो जाने तक चला । इस दौरान जनता की आशाओं-अपेक्षाओं और स्वतंत्रता-आन्दोलन के हमारे नेताओं-शहीदों के सपनों पर पानी फेरा जाता रहा । महात्मा गांधी के जिस ‘हिन्द स्वराज’ विषयक चिन्तन-दर्शन से स्वतंत्रता आन्दोलन को सम्बल मिला था , उसे तो उनकी उस पुस्तक के पन्नों से बाहर निकलने ही नहीं दिया गया । न शिक्षा-पद्धति बदली ,  न बदली अर्थ नीति ; अंग्रेजों के जाने के बाद और छा गई अंग्रेजी । शासनतंत्र का ढांचा वही का वही रहा , कानून भी हैं  वही के वही । आज गांव उजड रहे हैं , शहर पसरते जा रहे हैं । गरीब और गरीब होता जा रहा , अमीर और अमीर । हर क्षेत्र में विकास की पश्चिमी अवधारणा के अंधानुकरण की ऐसी होड मची हुई है कि जिन दो सभ्यताओं-संस्कृतियों के जिस संघर्ष को सहस्त्राब्दी के हमारे महानायक महात्मा ने ‘स्वतंत्रता-संघर्ष’ कहा था , उसमें  हमारी सभ्यता-संस्कृति पश्चिम से बुरी तरह ग्रसित होती जा रही है और ‘सबरमति के संत’ की आत्मा ‘हे राम’ पुकार रही है ।  देश में काली कमाई बढ रही है और बढ रहा है काला धन , तो जाहिर है अपना गणतंत्र  भी निर्मल-धवल नहीं है , इसकी दशा-दिशा ठीक नहीं है  और ठीक नहीं है इसकी चाल-चलन ।
              गणतंत्र की इस लम्बी यात्रा के दौरान ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ को ले कर जनसंघ-भाजपा का भी उद्भव और विकास हुआ, जो वंशवाद-जातिवाद-परिवारवाद-क्षेत्रीयतावाद की राजनीति के भ्रष्टाचरण से उलट ‘राजनीतिक शुचिता’ की दुहाई के साथ ‘औरों से भिन्न’ होने का दम्भ भरती हुई गणतंत्र का वास्तविक अर्थ कायम करने के बावत ‘संविधान-समीक्षा’ की घोषणा के साथ अपने लोकप्रिय राजनेता अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में सत्तासीन हुई , किन्तु उन्हीं गैर-कांग्रेसी दलों से गठबंधन कायम कर के , जिनसे ‘भिन्न’ होने का दावा करती रही । जाहिर है , ऐसे में वह भी कुछ ‘भिन्न’ नहीं कर सकी, क्योंकि जिनकी कथनी-करनी से भिन्न होने का उसका दावा था , उन्हीं कांग्रेसी रीति-नीति-प्रकृति-प्रवृति वाले गैर-कांग्रेसी दलों से उसने गठबन्धन कायम किया हुआ था । लिहाजा , उसके शासन-कल में भी गणतंत्र का क्षरण ‘खिचडी तंत्र’ के रूप में बदस्तूर जारी ही रहा । तदोपरांत फिर दस वर्षों तक सत्तासीन रही कांग्रेस देश की सत्ता का संचालन-सूत्र सोनिया को और प्रधानमंत्री का पद मनमोहन सिंह को थमा कर गणतंत्र की बची-खुची ‘गणमान्यता’ को भी धूल-धुसरित कर इसे ‘रिमोटतंत्र’ और ‘गौण-मौनतंत्र’ के साथ-साथ ‘गबनतंत्र’ , ‘घोटालातंत्र’, ‘धनतंत्र’, जैसे अनर्थ प्रदान करती हुई लोकतंत्र को मुंह चिढाने लगी , जिसकी परिणति हुई उसी भाजपा की पुनर्वापसी, जो पिछली बार ‘संविधान समीक्षा आयोग’ तो बना चुकी थी लेकिन समीक्षा की दिशा में एक कदम भी आगे बढा नहीं सकी ।  
             अब १६वीं संसदीय चुनाव के परिणामस्वरूप नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की पुनर्वापसी दर-असल उसी कांग्रेसी रीति-नीति व प्रवृति के साथ हुई है , जिसके कारण गणतंत्र की अब तक अनर्थकारी ऐसी-तैसी होती रही है । संविधान-समीक्षा की उसकी घोषणा तो वहीं की वहीं रह गई , अलबता सत्ता में आते ही भाजपा ने भी अपनी नीतियों को लागू करने के लिए कांग्रेस की ही तरह संविधान में संशोधन करना ही मुनासिब समझा । मालूम हो कि हमारा गणतंत्र जिस संविधान के आधार पर खडा है उसमें सन १९५० से अब तक ६७ वर्षों के अन्दर १२२ संशोधन हो चुके हैं । सवाल उठता है कि  हमारा गणतंत्र  जिन चुनौतियों से घिरा हुआ है , उनसे निबटने के लिए इसके आधार-स्तम्भ कहे जाने वाले संविधान में नित नये संशोधनों का सिलसिला आगे बढाते रहना ही निदान है , या वर्तमान की आवश्यकता व भविष्य की भवितव्यता और जन-मन की स्वीकार्यता के हिसाब से  एक बार  संविधान की समीक्षा कर लेना बेहतर समाधान है ? 
          यहां गौरतलब है कि हमारा गणतंत्र भले ही महज ६७ वर्षों का है , किन्तु यह गणतंत्र जिस आधार पर टिका हुआ है उस संविधान का अधिकतर भाग भारत पर अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन की सुविधा व अनुकूलता  के हिसाब से ब्रिटिश पार्लियामेण्ट द्वारा  सन १८६१ में पारित ‘इण्डिया काऊंसिल ऐक्ट’  तथा सन १९३५ के ‘इण्डिया गवर्न्मेंट ऐक्ट’  और १९४६ के ‘कैबिनेट मिशन ऐक्ट’ तथा सन १९४७ के ‘इण्डियन इंडिपेण्डेंस ऐक्ट’ का संकलन और इन्हीं चारो अधिनियमों का विश्लेष्ण है । शेष भाग दुनिया के विभिन्न देशों के संविधानों से लिए गए प्रावधानों का मिश्रण है,  जबकि भारतीय जन-मन का प्रकटिकरण तो  इसमें कम ही है । अब जरूरत यह है कि भारतीय ‘जन-मन’ के अनुसार इस ‘गणतंत्र’ का परिष्करण हो तथा “इण्डिया दैट इज भारत” के संविधान का “भारत दैट इज इण्डिया” के रूप में रूपान्तरण हो और महात्मा जी के ‘हिन्द स्वराज’ अर्थात ‘भारतीय तरीके से भारत के राज-काज’ का संचालन हो ।
·              मनोज ज्वाला ; जनवरी’ २०१७
·              दूरभाष- ९४३१३०८३६२






    जन-मन के बिना ‘गण’तंत्र ;                   अनर्थकारी  षड्यंत्र
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                     मनोज ज्वाला
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    हमारे राष्ट्र-गान में ‘जन-मन’ के बीच में है ‘गण’ । शब्दों के इस क्रम के अपने विशेष निहितार्थ हैं । जन अर्थात जनता को अभिव्यक्त करने वाला व्यक्ति तथा गण अर्थात व्यक्तियों के संगठन-समूह अथवा उनके प्रतिनिधि और मन अर्थात इच्छा या पसंद । “ जन-गण-मन अधिनायक जय हे ” अर्थात , जनता के संगठन-सामूह को भाने वाले इच्छित अधिनायक की जय हो । इस राष्ट्रगान में ‘अधिनायक’ कौन है , यह अलग विषय है । मेरे कहने का मतलब सिर्फ यह है कि जनता के मन की अभिव्यक्ति उसकी संगठित सामूहिकता, अर्थात ‘गण’ के बिना सम्भव नहीं है ; इसी कारण जन मन के बीच गण का होना अपरिहार्य है । ठीक इसी तरह से गण की महत्ता भी जन-मन के बिना कतई नहीं है , जबकि जनता के मन के बिना कोई गण कायम ही नहीं हो सकता । ऐसे में जन-मन के बिना अथवा जन-मन की उपेक्षा कर के और जन-मन के विरूद्ध किसी बाहरी शक्ति के द्वारा कोई गण कायम किया जाना अनुचित भी है और अनैतिक भी ; क्योंकि तब वह ‘गण’ ‘जन-मन’ के अनुकूल नहीं होने के कारण जनता के लिए मंगलकारी कतई नहीं हो सकता । और , अगर शासन के ‘गणतंत्र’ की बात करें , तो इसके साथ जन मन का होना तो और भी अपरिहार्य है , क्योंकि इसके बगैर गणतंत्र अनर्थकारी हो जाता है ; ठीक वैसे ही जैसे हमारे देश का वर्तमान गणतंत्र ।
                २६ जनवरी १९५० को स्थापित  भारतीय  गणतंत्र  भारत के जन मन से निर्मित नहीं है बल्कि ‘इन्डिया दैट इज भारत’ के संविधान पर आधारित है । यह संविधान तो वस्तुतः भारत पर ब्रिटिश शासन को अधिकाधिक सुविधा-अनुकूलता प्रदान करने के बावत ब्रिटिश पार्लियामेण्ट द्वारा काऊंसिल ऐक्ट-१८६१ के बाद हमारे ऊपर थोपे  गए उसके विभिन्न अधिनियमों,  जिनमें प्रमुख हैं- ‘भारत शासन अधिनियम-१९३५’ तथा ‘कैबिनेट मिशन अधिनियम-१९४६’ और ‘भारत स्वतंत्रता अधिनियम-१९४७ का संकलन ही है अधिकतर । इसकी जड दर-असल सन १८५७ के भारतीय स्वतंत्रता-संग्रामकारी ‘जन-विद्रोह’ से घबरायी हुई ब्रिटिश सत्ता की पार्लियामेण्ट द्वारा भारत पर शासन करते रहने की सुविधा-अनुकूलता कायम करने की गुप्त योजना के तहत जनता के बीच से पढे-लिखे विशिष्ट लोगों को जन-प्रतिनिधि के तौर पर मनोनीत-निर्वाचित करने-कराने तथा उन्हें तदनुसार प्रशिक्षित किये जाने के निमित्त सन १८६१ में लाए गए ‘इण्डिया काऊंसिल ऐक्ट’ में है ।  
              मालूम हो कि सन १८८५ में ए० ओ० ह्यूम नामक एक अंग्रेज अधिकारी के हाथों कांग्रेस की स्थापना करना-कराना भी ब्रिटिश हुक्मरानों की उसी गुप्त योजना की अगली कडी थी । ब्रिटिश शासन की उसी कूटनीति की उपज थी भारत में ब्रिटिश ढर्रे की चुनावी संसदीय राजनीति , जिसकी संवाहक-सहायक बनी कांग्रेस । कांग्रेस के सहारे जन-प्रतिरोध-विरोध की युरोपियन पद्धति के रूप में देश भर में स्थापित हो चुकी वही राजनीति बाद में सत्त-सुख हासिल करने के आधुनिक चुनावी लोकतंत्र में तब्दील हो गई । भारत में इस चुनावी लोकतंत्र और कांग्रेस नामक राजनीतिक संगठन का उद्भव-विकास एक- दूसरे के समानान्तर , लगभग साथ-साथ ही परस्पर पूरक या यों कहिए कि अन्योन्याश्रय के तौर पर हुआ । इस कारण गणतंत्र की दशा-दिशा का निर्माण व निर्धारण लोकतंत्र की व्याप्ति-प्रवृति तथा कांग्रेस की कार्य-संस्कृति और  ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की रीति-नीति के अनुसार ही हुआ । जाहिर है , यह संविधान व गणतंत्र जिन आधारभूत ब्रिटिश अधिनियमों के सतत विकसित क्रियान्वयन तथा कांग्रेस के हाथों सत्ता-हस्तातरण की प्रक्रियाओं का प्रतिफलन है , उनका सम्बन्ध-सरोकार भारतीय जनता की आकांक्षाओं के साथ कम ही था । क्योंकि उनका निर्माण ही हुआ था उस जन-विरोधी शासन की स्वीकार्यता,  सुविधा व अनुकूलता कायम करने के निमित्त । ऐसे में उन तथाकथित जन-प्रतिनिधियों और कांग्रेस के नेताओं की मंशा-मानसिकता , नीति , नीयत व नियति और चित्ति-प्रवृति क्या व कैसी रही होगी तथा उनके साथ भारत का जन-मन कितना व किस तरह से रहा होग , इसे आप महज एक उदाहरण से समझ सकते हैं ।
         सीमित मताधिकार के तहत  सन  १९३६ में हुए चुनाव से पहले सन १९३४ में कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व ने नीचे की सभी ईकाइयों को निर्देश दिया कि वे कांग्रेस-समितियों का चुनाव सम्पन्न करा कर उनका पुनर्गठन करें । तब सत्ताकांक्षी धन-सम्पन्न कांग्रेसियों ने अपनी-अपनी जेबों से सदस्यता और खादी के पैसे चुका कर भारी संख्या में फर्जी सदस्य बना-बना कर उनकी बदौलत स्वयं बडे-बडे पद हथिया लिए । इस भ्रष्टाचार पर कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जैसे नेताओं ने चिन्ताजनक प्रतिक्रिया जताते हुए महात्मा गांधी को सूचित किया तो गांधीजी ने एक सप्ताह का प्रायश्चित उपवास किया था । बाद में वे ही लोग सन १९३६ में और सन १९४५ में सीमित मताधिकार से हुए चुनाव के जरिये निर्वाचित होकर  प्रान्तीय व्यवस्थापिका-सभाओं और केन्द्रीय विधान-परिषद के सदस्य बन गए । जाहिर है वे लोग कहीं से भी , किसी भी तरह से आम जन-प्रतिनिधि नहीं थे, क्योंकि उन्हें चुनने वाले लोग आम वयस्क मतदाता नहीं , बल्कि कुछ खास वर्ग के लोग ही हुआ करते थे ।
           उन्हीं प्रान्तीय विधान-सभाओं द्वारा परोक्ष रूप से चुने गए ३०० विधायकों , जिनमें कांग्रेस के २१२ व मुस्लिम लीग के ७२ एवं १६ अन्य शामिल थे और देशी रियासतों के ७९ प्रतिनिधियों को मिला कर १६ जुलाई १९४६ को ब्रिटिश सरकार के कैबिनेट मिशन प्लान  के तहत संविधान सभा गठित-घोषित कर दिया गया । वह ‘संविधान सभा’ सर्वप्रभुतासम्पन्न कतई नहीं थी , क्योंकि उसे उस कैबिनेट मिशन प्लान के दायरे में ही एक प्राधिकृत ब्रिटिश नौकरशाह बी० एन० राव (आई० सी० एस०) के  परामर्शानुसार संविधान तैयार करना था  । १३ दिसंबर १९४६ को उस संविधान-सभा की एक समिति द्वारा संविधान की प्रस्तावना पेश की गयी, जिसे २२ जनवरी १९४७ को सभा ने स्वीकार किया । सभा की उस बैठक में कुल २१४ सदस्य ही उपस्थित थे । अर्थात ३५ करोड की आबादी वाले देश के महज ३८९ सदस्यों वाली संविधान-सभा में कुल ५५% सदस्यों ने ही संविधान की प्रस्तावना को स्वीकार कर किया , जिसे संविधान की आधारशिला माना जाता है । इस स्थिति को रेखांकित करते हुए उक्त संविधान-सभा के ही एक सदस्य दामोदर स्वरूप सेठ ने उक्त सभा की अध्यक्षीय पीठ को संबोधित करते हुए सवाल उठाया था- “ क्या यह संविधान-सभा हमारे देश के सम्पूर्ण जन-समुदाय की प्रतिनिधि होने का दावा कर सकती है ।  मैं दावे के साथ कहता हूं कि यह सभा मात्र १५ % लोगों का प्रतिनिधित्व करती है , जिन्होंने प्रान्तीय विधान-सभाओं का चयन किया । ऐसी स्थिति में जब देश के ८५ % लोगों का प्रतिनिधित्व न हो , उनकी कोई आवाज न हो ; तब इस सभा को देश का संविधान बनाने का अधिकार है , यह मान लेना मेरी राय में गलत होगा ।”
                        परन्तु अपने देश के जन-मन का दुर्भाग्य देखिए कि उन्हीं तथाकथित जन-प्रतिनिधियों ने ब्रिटिश पार्लियामेण्ट से पारित उपरोक्त अधिनियमों की खिचडी में एक ब्रिटिश नौकरशाह द्वरा इंग्लैण्ड अमेरिका रुस, फ्रांस, जर्मनी , स्विटजरलैण्ड , कनाडा आदि दर्जनाधिक देशों के संविधानों से लाए हुए नमक-मिर्च-मशाला की छौंक लगा कर उसे ही ‘इण्डिया दैट इज भारत का संविधान’ घोषित कर ‘हम भारत के लोगों’ से पूछे बिना ‘हम भारत के लोग इसे आत्मार्पित करते हैं’ ऐसी घोषणा लिख कर अपने-अपने हस्ताक्षर कर दिए । उस सभा में भारतीय जनता की सहमति और हम भारत के लोगों की अभिव्यक्ति लेश मात्र भी नहीं थी ।  हम भारत के लोगों का यह  संविधान कहीं से भी भारतीय है ही नहीं । जाहिर है , ऐसे अभारतीय संविधान से निर्मित हमारा गणतंत्र भी वैशाली , मगध , लिच्छवी साम्राज्य के गौरवशाली शासन वाला भारतीय गणतंत्र नहीं है । भारत पर ब्रिटिश योजना के तहत अभारतीय संविधान थोपना एक षड्यंत्रपूर्ण अनर्थ है , जिसका परिणाम हमारे सामने है कि इससे निर्मित गणतंत्र आज तक हमारे स्वतंत्रता सेनानियों-शहीदों के सपनों और भारतीय जन-मन के अरमानों को पूरा करने में एकबारगी असफल ही सिद्ध हो रहा है । ०२ सितम्बर १९५३ को राज्यसभा में भीमराव अम्बेदकर ने कहा था- “ मैं संविधान का निर्माता नहीं हूं , मैं तो उस समय भाडे का टट्टू था, मुझे जो कुछ करने को कहा ग्या , वह मैंने अपनी इच्छा से किया ।”
            अहमदाबाद में हेमचन्द्राचार्य संस्कृत पाठशाला नाम से प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति का एक गुरुकुल चलाने वाले प्रखर शिक्षाविद उत्तमभाई जवानमल शाह और विनियोग परिवार मुम्बई के बयोवृद्ध चिन्तक अरविन्द भाई पारेख जैसे राष्ट्रवादियों का मानना है कि भारत के संविधान में भारतीय जीवन-मूल्यों का समावेश होना चाहिए था, जो बिल्कुल ही नहीं है ।  पूरी दुनिया को आज से हजारों साल पहले धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष-आधारित जीवन-दर्शन से युक्त ‘मनुस्मृति’ जैसी कानून की पहली ‘संहिता’ प्रदान करने वाले भारत का संविधान उन अंग्रेजों के निर्देशानुसार लिखा जाना , जो पांच सौ साल पहले तक बिल्कुल ‘अराजक’ थे और जहां की राज-सत्ता समुद्री लुटेरों को ‘नाईटहुड’ व ‘सर’ की उपाधि से सम्मानित करती रही हो अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है ।   

·              मनोज ज्वाला ; जनवरी’ २०१७
·              दूरभाष- ९९७३९३६३९१