भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों के अपहरण की साजिश
मनोज
ज्वाला
“संस्कृत
भाषा का आविष्कार ‘सेंट टामस’ ने भारत में ईसाइयत का प्रचार करने के लिए एक औजार के
रूप में किया था और वेदों की उत्पत्ति सन १५० ईस्वी के बाद ईसा मसिह की शिक्षाओं से
हुई , जिसे बाद में धूर्त ब्राह्मणों ने हथिया लिया ।” जी हां ! चौंकिए मत , आगे भी
पढिये और पढते जाइए । भारत के प्राचीन शास्त्रों-ग्रन्थों का गुप-चुप, शांतिपूर्वक अपहरण करने में लगे हुए पश्चिमी बौद्धिक-अपहर्ताओं
का यह भी दावा है कि “ भारत का बहुसंख्यक समुदाय मूल रूप से ईसाई ही है, अर्थात ‘नूह’
के तीन पुत्रों में से दो की संततियों के अधीन रहने को अभिशप्त- ‘हैम’ के वंशजों का
समुदाय है ; किन्तु भ्रष्ट और प्रदूषित होकर मूर्तिपूजक बन गया , तो ‘हिन्दू’ या ‘सनातनी’
कहा जाने लगा ।” इतना ही नहीं , “ गीता और
महाभारत भी ईसा की शिक्षाओं के प्रभाव में लिखे हुए ग्रन्थ हैं । और , यह भी कि “ दक्षिण
भारत के महान संत-कवि- तिरुवल्लुवर तो पूरी तरह से ईसाई थे , उन्हें ईसा के प्रमुख
शिष्यों में से एक- ‘सेन्ट टामस’ ने ईसाइयत की शिक्षा-दीक्षा दी थी ; इस कारण उनकी
कालजयी रचना- ‘तिरुकुरल’ में ईसा की शिक्षायें ही भरी हुई हैं ।” भारत के ज्ञान-विज्ञान
की चोरी करते रहने वाले पश्चिम के ‘बौद्धिक चोरों’ की ऐसी सीनाजोरी का आलम यह है कि
अब कतिपय भारतीय विद्वान ही नहीं , सत्ता-प्रतिष्ठान भी उनकी हां में हां मिलाने लगे
हैं ।
किसी
सफेद झूठ को हजार मुखों से हजार-हजार बार कहलवा देने और हजार हाथों से उसे हजार किताबों
में लिखवा देने से वह सच के रूप में स्थापित हो जाता है ; स्थापित हो या न हो , वास्तविक
सच उसी अनुपात में अविश्वसनीय तो हो ही सकता है । इसी रणनीति के तहत पश्चिमी साम्राज्यवादी
उपनिवेशवाद (अब नव-उपनिवेशवाद ) और ईसाई-विस्तारवाद के झण्डाबरदार बुद्धिजीवी-लेखक-भाषाविद
पिछली कई सदियों से ‘नस्ल-विज्ञान’ और ‘तुलनात्मक भाषा-विज्ञान’ नामक अपने छद्म-शस्त्रों
के सहारे समस्त भारतीय वाङ्ग्मय का अपहरण करने में लगे हुए हैं । चिन्ताजनक बात यह
है कि अपने देश का बुद्धिजीवी-महकमा भी इस सरेआम बौद्धिक चोरी-डकैती-अपहरण-बलात्कार
से या तो अनजान है या जानबूझ कर मौन है ।
गौरतलब
है कि माल-असबाब की चोरी करने के लिए घरों में घुसने वाले चोर जिस तरह से सेंधमारी
करते हैं अथवा किसी खास चाबी से घर के ताले
को खोल लेते हैं , उसी तरह की तरकीबों का इस्तेमाल इन बौद्धिक अपहर्ताओं ने भारतीय
वाङ्ग्मय में घुसने के लिए किया । सबसे पहले इन लोगों ने ‘नस्ल-विज्ञान’ के सहारे आर्यों
को यूरोपीय-मूल का होना प्रतिपादित कर गोरी चमडी वाले ईसाइयों को सर्वश्रेठ आर्य व
उतर-भारतीयों को प्रदूषित आर्य एवं दक्षिण भारतीयों को आर्य-विरोधी ‘द्रविड’ घोषित
कर भारत में आर्य-द्रविड-संघर्ष का कपोल-कल्पित बीजारोपण किया और फिर अपने ‘तुलनात्मक
भाषा-विज्ञान’ के सहारे संस्कृत को यूरोप की ग्रीक व लैटिन भाषा से निकली हुई भाषा
घोषित कर तमिल-तेलगू को संस्कृत से भी पुरानी भाषा होने का मिथ्या-प्रलाप स्थापित करते
हुए विभिन्न भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों के अपने मनमाफिक अनुवाद से बे-सिर-पैर की अपनी
उपरोक्त स्थापनाओं को जबरिया प्रमाणित-प्रचारित भी कर दिया ।
मालूम
हो कि दक्षिण भारत की तमिल भाषा में ‘ तिरुकुरल ’ वैसा ही लोकप्रिय सनातनधर्मी-ग्रन्थ
है , जैसा उतर भारत में रामायण , महाभारत अथवा गीता । इसकी रचना वहां के महान संत कवि
तिरूवल्लुवर ने की है । १९वीं सदी के मध्याह्न में एक कैथोलिक ईसाई मिशनरी जार्ज युग्लो
पोप ने अंग्रेजी में इसका अनुवाद किया, जिसमें उसने प्रतिपादित किया कि यह ग्रन्थ
‘अ-भारतीय’ तथा ‘अ-हिन्दू’ है और ईसाइयत से जुडा हुआ है । उसकी इस स्थापना को मिशनरियों
ने खूब प्रचारित किया । उनका यह प्रचार जब थोडा जम गया, तब उननें उसी अनुवाद के हवाले
से यह कहना शुरू कर दिया कि ‘तिरूकुरल’ ईसाई-शिक्षाओं का ग्रन्थ है और इसके रचयिता
संत तिरूवल्लुवर ने ईसाइयत से प्रेरणा ग्रहण कर इसकी रचना की थी, ताकि अधिक से अधिक
लोग ईसाइयत की शिक्षाओं का लाभ उठा सकें । इस दावे की पुष्टि के लिए उनने उस अनुवादक
द्वारा गढी गई उस कहानी का सहारा लिया, जिसमें यह कहा गया है कि ईसा के एक प्रमुख शिष्य
सेण्ट टामस ने ईस्वी सन ५२ में भारत आकर ईसाइयत का प्रचार किया , तब उसी दौरान तिरूवल्लुवर
को उसने ईसाई धर्म की दीक्षा दी थी । हालाकि मिशनरियों के इस दुष्प्रचार का कतिपय निष्पक्ष
पश्चिमी विद्वानों ने ही उसी दौर में खण्डण भी किया था, किन्तु उपनिवेशवादी ब्रिटिश
सरकार समर्थित उस मिशनरी प्रचार की आंधी में उनकी बात यों ही उड गई । फिर तो कई मिशनरी
संस्थायें इस झूठ को सच साबित करने के लिए ईसा-शिष्य सेन्ट टामस के भारत आने और हिन्द
महासागर के किनारे ईसाइयत की शिक्षा फैलाने सम्बन्धी किसिम-किसिम की कहानियां गढ कर
अपने-अपने स्कूलों में पढाने लगीं । तदोपरान्त उन स्कूलों में ऐसी शिक्षाओं से शिक्षित
हुए भारत की नयी पीढी के लोग ही इस नये ज्ञान को और व्यापक बनाने के लिए इस विषय पर
विभिन्न कोणों से शोध अनुसंधान भी करने लगे । भारतीय भाषा-साहित्य में पश्चिमी घुसपैठ
को रेखांकित करने वाले विद्वान लेखक- राजीव मलहोत्रा और अरविन्दन नीलकन्दन ने ऐसे ही
अनेक शोधार्थियों में से एक तमिल भारतीय- ‘एम० देइवनयगम’ के तथाकथित शोध-कार्यों का
विस्तार से खुलासा किया है । उनके अनुसार, देईवनयगम ने मिशनरियों के संरक्षण और उनके
विभिन्न शोध-संस्थानों के निर्देशन में अपने कथित शोध के आधार पर अब सरेआम यह दावा
कर दिया है कि ‘तिरूकुरल’ ही नहीं , बल्कि चारो वेद और भागवत गीता, महाभारत, रामायण
भी ईसाई-शिक्षाओं के प्रभाव से प्रभावित एवं उन्हीं को व्याख्यायित करने वाले ग्रन्थ
हैं और संस्कृत भाषा का आविष्कार ही ईसाईयत के प्रचार हेतु हुआ था । उसने वेदव्यास
को द्रविड बताते हुए उनकी समस्त रचनाओं को गैर-सनातनधर्मी होने का दावा किया है । अपने
शोध-निष्कर्षों को उसने १८वीं शताब्दी के युरोपीय भाषाविद विलियम जोन्स की उस स्थापना
से जोड दिया है, जिसके अनुसार सनातन धर्म के प्रतिनिधि- ग्रन्थों को ‘ईसाई सत्य के
भ्रष्ट रूप’ में चिन्हित किया गया है ।
सन
१९६९ में देइवनयगम ने एक शोध-पुस्तक प्रकाशित की- ‘वाज तिरूवल्लुवर ए क्रिश्चियन
?’, जिसमें उसने साफ शब्दों में लिखा है कि
सन ५२ में ईसाइयत का प्रचार करने भारत आये सेन्ट टामस ने तमिल संत कवि- तिरूवल्लुवर
का धर्मान्तरण करा कर उन्हें ईसाई बनाया था । अपने इस मिथ्या-प्रलाप की पुष्टि के लिए
उसने संत-कवि की कालजयी कृति- ‘तिरूकुरल’ की कविताओं की तदनुसार प्रायोजित व्याख्या
भी कर दी और उसकी सनातन-धर्मी अवधारणाओं को ईसाई- अवधारणाओं में तब्दील कर दिया । इस
प्रकरण में सबसे खास बात यह है कि तमिलनाडू की ‘द्रमुक’-सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री
ने उस किताब की प्रशंसात्मक भूमिका लिखी है और उसके एक मंत्री ने उसका विमोचन किया
।
इस
बौद्धिक अपहरण-अत्याचार को मिले उस राजनीतिक संरक्षण से प्रोत्साहित हो कर देइवनयगम
दक्षिण भारतीय लोगों को ‘द्रविड’ और उनके धर्म को ‘ईसाइयत के निकट , किन्तु सनातन धर्म
से पृथक’ प्रतिपादित करने के चर्च-प्रायोजित अभियान के तहत ‘ड्रेवेडियन रिलिजन’ नामक
पत्रिका भी प्रकाशित करता है । उस पत्रिका में लगातार यह दावा किया जाता रहा है कि
“सन- ५२ में भारत आये सेन्ट टामस द्वारा ईसाइयत का प्रचार करने के औजार के रूप में
संस्कृत का उदय हुआ और वेदों की रचना भी ईसाई शिक्षाओं से ही दूसरी शताब्दी में हुई
है, जिन्हें धूर्त ब्राह्मणों ने हथिया लिया” । वह यह भी प्रचारित करता है कि “ ब्राह्मण,
संस्कृत और वेदान्त बुरी शक्तियां हैं और इन्हें तमिल समाज के पुनर्शुद्धिकरण के लिए
नष्ट कर दिये जाने की जरूरत है ।”
ऐसी वकालत करने की पीछे वे लोग सक्रिय
हैं , जिनकी पुरानी पीढी के विद्वानों-भाषाविदों यथा विलियम जोन्स व मैक्समूलर आदि
ने १८वीं सदी में ही संस्कृत को ईसा-पूर्व की और भारतीय आर्यों की भाषा होने पर मुहर
लगा रखी है ; किन्तु ये लोग अब कह रहे हैं कि नहीं, इनके उन पूर्वजों से गलती हो गई
थी । दर-असल संस्कृत को अब द्रविडों की भाषा बताने वाले इन साजिशकर्ताओं की रणनीति
है- दो कदम आगे और दो कदम पीछे चलना ।
मनोज ज्वाला ; ०१ अगस्त ‘ २०१६
दूरभाष- ९४३१३०८३६२
ई-मेल- jwala362@gmail.com